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षट्नामृते
' [५.७७कम्मं बंधइ) तीर्थकरनामकर्म बध्नाति त्रिनवतिमी प्रकृति स्वीकरोति यया
लाक्यं संचलयति पादाधः करोति । ( अइरेण कालेण ) अचिरेण कालेन अन्त- . मुहूर्तसमयेन, यया पंचकल्याणलक्ष्मी प्राप्नोति, अनन्त-कालमनन्तसुखमनुभवति, अनायासेन मोक्षं प्राप्नोति । अथ कानि तानि षोडशकारणाणि यस्तीर्थकरनामकर्म बध्यते इति चेदुच्यते
"'दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसो साधुसमाधियावृत्यकरणमहंदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्य- .. कापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य" । ___ इत्युमास्वामिसूरिणा प्रोक्तं सूत्रं । अस्यायमर्थः-इहलोकभय-परलोकभयवेदनाभय-मरणभय-आत्मरक्षणोपायदुर्गाद्यभावागुप्तिभयः-अत्राणभयारक्षणभयविद्युत्पाताद्याकस्मिकभयं इति सप्तभयरहितस्वं निःशंकितत्वं निग्रंन्थलक्षणो मोक्षमार्ग इति जिनमतं तथेति वा निःशकितत्वं (१) इहलोकपरलोकभोगोपभोगाकांक्षा
श्रमण-मुनि पञ्चेन्द्रियोंके विषयों से विरक्त होता हुआ सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन करता है वह अल्प ही समय में उस तीर्थंकर नामकी प्रकृतिका बन्ध करता है जिससे पञ्चकल्याण रूप लक्ष्मोको प्राप्त होता है, अनन्त काल तक अनन्त सुखका अनुभव करता है और अनायास ही मोक्ष को प्राप्त होता है।
प्रश्न-वे सोलह कारण भावनाएं कौन हैं जिनसे तीर्थकर नाम कर्मका बन्ध होता है ? .
उत्तर-श्री उमास्वामी सूरिने तत्त्वार्थसूत्र में निम्नलिखित सोलह कारण भावनाएं कही हैं-१ दर्शनविशुद्धि, २ विनयसंपन्नता, ३ शीलव्रतेष्वनतिचार, ४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५ संवेग, ६ शक्तितस्त्याग, ७ शक्तितस्तप ८ साधुसमाधि ९ वैयावृत्यकरण, १० अर्हद्भक्ति, ११ आचार्यभक्ति, १२ बहुश्रु तभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति १४ आवश्यकापरिहाणि १५ मार्गप्रभावना और १६ प्रवचनवत्सलत्व । ( १ ) इनमें प्रथम भावना दर्शन विशुद्धि है जिसका प्रमुख अर्थ अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शन धारण करना है । १ निःशङ्कित २ निःकांक्षित ३ निविचिकित्सित ४ अमूढदृष्टि ५ उपगृहन ६ स्थितिकरण ७ वात्सल्य और ८ प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है
१. निःशंकित अंग-इह लोकभय, परलोकभय, वेदनामय, मरण १. तत्त्वार्थसूत्रे बकाण्याये।
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