Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-५. ७७ ]
भावप्राभृतम्
४०९
सुखदुःख-वन्भवन-पुरारण्यादिषु समानं चित्तं मनो यस्य समचित्तः। ( पावइ तिहुयणसारं ) प्राप्नोति लभते। कां, ( बोही ) बोधि रत्नत्रयप्राप्ति । कथंभूतां बोधिं, तिहुयणसारं-त्रैलोक्योत्तमा ( जिणससणे जीवो ) जिनशासने सर्वज्ञवीतरागस्वामिनो मत्ते। मानमिथ्यात्वमोहरहितो जीवो बोधि प्राप्नोतीति जिनवचनं ज्ञातव्यमिमते।
विसयविरत्तो समणो छद्दसंवरकारणाई भाऊण । तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण ॥७७॥ विषयविरक्तः श्रमणः षोडशवरकारणानि भावयित्वा । तीर्थकरनामकर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ॥७७॥ (विसयविरत्तो समणो ) विषयेभ्यः स्पर्शरसगन्ववर्णशब्देभ्यः पंचेन्द्रियार्थेभ्यो विरक्तः पराड़ मुखः श्रमणो दिगम्बरः, न तु श्वेताम्बरादिकः प्रत्याख्यानादिहीनः तपःक्लेशसद्दः श्रमण उच्यते न तु बहुवार जलस्य पाता भोजनस्य भोक्ता च ( छड्सवरकारणाई भाऊणं ) षोडशसंवरकारणानि भावयित्वा । ( तित्थयरनाम
विशेषार्थ-मानका अर्थ अहंकार है, मिथ्यात्व विपरीत अभिप्राय को कहते हैं मोह, वैचित्त्य, निविवेकता अथवा पुत्र मित्र स्त्री आदिका स्नेह कहलाता है। समचित्त का अर्थ तृण और सुवर्ण, सर्प और माला, शत्रु
और मित्र, सुख और दुःख, वन और भवन तथा नगर और अटवी में समभाव रखना है इस तरह जिसकी मान कषायं गल चुकी है, जिसके मिथ्यात्व और मोह नष्ट हो चुके हैं तथा जो तृण सुवर्ण आदि में समचित है-हर्ष विषाद से रहित है वही तोन लोक में सारभूत रत्नत्रय रूप विभूति को प्राप्त होता है, ऐसा जिनशासन-वोतराग सर्वज्ञ देवका वचन
गाथार्य-विषयों से विरक्त रहने वाला साधु सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन कर थोड़े ही समय में तीर्थंकर नाम कर्मका बन्ध कर लेता है ।।७७||
विशेषार्थ-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये पञ्चेन्द्रियों के विषय हैं । दिगम्बर साधु इन विषयों से सदा विरक्त रहते हैं। तपश्चरणसम्बन्धो क्लेश सहन करनेके कारण दिगम्बर साधु श्रमण कहलाते हैं । अन्य श्वेताम्बरादिक साधु प्रत्याख्यान से रहित हैं तथा अनेक बार जल पीते एवं भोजन ग्रहण करते हैं इसलिये उन्हें श्रमण संशा नहीं है । जो
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