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षट्प्राभृते - [-५.७८ सयानं न भवति । 'यथा प्रदीपशिखा अनिराबाधेन, परिस्पन्दत तथाऽनिराकुलतायां ध्यान न स्यात् । गुप्तिसामतिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रादिक यत्संवरकारणं तदेव ध्यानकारणमिति ज्ञातव्यं । आन्तुर्मुहूर्तात् मुहूर्तमध्ये ध्यान भवति । न चाधिकः कालो ध्यानस्यास्ति, कस्मात् ? चिन्तानां दुर्धरत्वात् अतिचपलत्वाच्च । एतावत्यपि काले ज्वलदचलं ध्यानं कर्मध्वंसाय भवति प्रलयकालमारुतवत् समुद्रजलशोषणवत् । तदधानं हेयमुनादेय च । तत्र हेयमातं रौद्रं च । उपादेयं धम्यं शुक्लं च । ऋतौ दुःखे भवमात । रुद्रः क्रू राशयः प्राणी तत्कर्म रौद्रं । धर्मो वस्तुस्वरूपं तस्मादनपेतं आश्रितं धयं । मलरहितात्मपरिणामोद्भवं शुक्लं । तत्र धयं शुक्लं च द्वयं मोक्षकारणं । संसारकारणमन्यवयमातरौद्रमिति ज्ञातव्यं । आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारो वारं वारं चिन्तनं । मनोज्ञस्य विपरीतं चिन्तनं तद्विपरीतं । वेदनाचिन्तनं । निदानस्य चिन्तनं । हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रं ध्यानमुत्पद्यते । आतमविरतदेश
ध्यान है । अनेक इन्द्रियों तथा अनेक शास्त्र आदि में जो ध्यान प्रवर्तमान रहता है, वह अनेक-मुख ध्यान कहलाता है अनेक मुखध्यान सद्ध्यान नहीं है । जिस प्रकार अनिरावाध अर्थात् वायुके संचार सहित स्थान में दीपक की शिखा स्फुरित नहीं होती, उसी प्रकार अनिराकुलता अर्थात् आकुलित दशा में ध्यान नहीं होता। गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा परोषह-जय और चारित्र-आदि जो संवर के कारण हैं वे ही ध्यान के कारण, हैं ऐसा जानना चाहिये। आन्तमुहूर्तात् इस पदका अर्थ है कि ध्यान अन्तमुहूर्त के भीतर होता है। अन्तमुहूर्त से अधिक ध्यानका काल नहीं होता है क्योंकि चिन्ताएं अत्यन्त दुधर और अत्यन्त चपल होती हैं। परन्तु इतने थोड़े समयमें भी यदि अविचल ध्यान हो जाय तो वह कोके ध्वंस-क्षयका कारण होता है जैसे कि प्रलय कालकी वायु और समुद्र के जलको सुखाने वाली बड़वानल।
वह ध्यान हेय भी है और उपादेय भी। आत्तं और रौद्र ध्यान हेय हैं तथा धर्म्य और शुक्लध्यान उपादेय हैं। ऋत का अर्थ दुःख होता है, दुःख में जो होता है वह आर्तध्यान है। रुद्र क्रूर परिणाम वाले जीवको कहते हैं उसका जो कर्म है वह रौद्रध्यान है । धर्मका अर्थ वस्तु स्वरूप है, वस्तु
१. वीर्यविशेषात्प्रदीप शिखावत् ॥ ६॥ यथा प्रदीपशिखा निराधाधे प्रज्वलिता
न परिस्पन्दते तथा निराकुले देशे, वीर्य विशेषादववध्यमाना चिन्ता विना व्याशेपेण । एकात्रणावनिष्ठते । त० पा० अ० ९ सूत्र २७
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