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४२६ . षट्प्रामृते - [५.७८यदा पुनरायुषोऽधिकं वेद्यावित्रितयं तदा दण्डकपाटादिकं चतुःसमयः कृत्वा पुनस्तावत्समयः समुपहृत्य समीकृतकर्मचतुष्टयः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति । ततोऽयोगिनः समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिव्युपरतक्रियानिवर्तिपरनामकं ध्यानं भवति । तस्मिन् स्थाने स्थितस्य सर्वांनवनिरोधात् सर्वशेषकर्मविध्वंसनसमथं सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्र साक्षान्मोक्षकारणं संजायते । अन्त्ये शुक्लध्यानद्वये चिन्तानिरोधाभा: वेऽपि ध्यानव्यवहारः ध्यानकार्यस्य, योगापहारस्य अघातिघातस्य चोपचारनिमित्तस्य सद्भावात् । तथा साक्षात्कृतसमस्तवस्तावहति न किंचिद्ध्येयमस्ति । ध्यानं तु तत्र असमानकर्मणां समानत्वकरणार्थ या चेष्टा, कर्मसाम्ये तत्क्षययोग्यसमया या अलोकिका मनीषा तदेव । सौख्यं मोहक्षयाज्ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयाच्वात्मनो दर्शनं
योगका श्रुतज्ञान के पर्यालोचन से परिवर्तन होता है इसलिये पहला भेद पृथक्त्व वितर्क विचार कहलाता है यद्यपि अर्थ और व्यञ्जन (शब्द) आदि की संक्रान्ति होनेके कारण चञ्चलता रहती है तथापि यह ध्यान माना जाता है क्योंकि इसी प्रकार की इस ध्यानमें विवक्षा होती है। विजातीय अनेक विकल्पों से रहित अर्थ आदिके संक्रमण से जो चिन्ता की सन्तति होती है, उस सबको एक ध्यान रूपसे माना गया है। अथवा द्रव्य और पर्यायात्मक वस्तुको एक वस्तु माना जाता है और सामान्य रूपसे व्यञ्जनों तथा योगोंमें भी एक-रूपता है, अतः व्यञ्जन अर्थ और योगोंका परिवर्तन होनेपर भी एकाग्र चिन्ता निरोध घटित हो जाता है। द्रव्यसे पर्याय को, व्यञ्जनसे व्यञ्जनान्तर को और योगसे योगान्तर छोड़कर यदि अन्य द्रव्य या उसको अन्य पर्यायों में चिन्ता प्रवृत्त होती है तो उसमें अनेक-रूपता होती है, न कि एक द्रव्यसे उसकी पर्याय में चिन्ताके प्रवृत्त होने में।
उसी प्रकार (पृथक्त्व वितर्क विचार की तरह ) श्रुतज्ञान के द्वारा एक अर्थका चिन्तन करता हुआ क्षीण कषाय गुणस्थानवर्ती मुनि यदि उसी अर्थ पर अविचलित-चित्त रहता है तो वह एकत्व वितर्क नामक द्वितीय शुक्लध्यानका धारक होता है।
[वचनयोग, मनोयोग और वादर काययोगको छोड़कर सूक्ष्म-काययोगका अवलम्बन करने वाले सयोग केवलो के जब आयु, वेदनीय, नाम
और गोत्र कर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाती है तब वे सूक्ष्म क्रिया-प्रतिपाति नामक तृतीय शुक्लध्यानके धारक होते हैं। यदि कदाचित् वेदनीय आदि तीन कोंकी स्थिति आयु कम से अधिक शेष
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