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षट्प्राभृते
[ ५.७८
'जलौदनभोजनादिः इद षड्विधं बाह्यं तपः । बाह्य कस्मादिति चेत् ? बाह्य भोजनादिकमपेक्ष्य प्रवर्तते, परप्रत्यक्षं वा प्रवर्तते, परदर्शने पाषंडिगृहस्थैश्च क्रियते ततो बाह्यमुच्यते । एतस्मात् तपसः कर्मदहनं इन्द्रियतापकारित्वं च भवति । [संयमो रागच्छेदः कर्मनाशो ध्यानादिः आशानिवृत्तिः शरीरतेजोहानिः ब्रह्मचर्यं दुःखसहनं सुखानभिष्वङ्ग आगमप्रभावनादिकं च फलं ज्ञातव्यं । षड्विधमभ्यन्तरं तपः, यतः परतीर्थैरनालीढं स्वसंवेद्यं बाह्यद्रव्यानपेक्ष्यं ततोऽभ्यन्तरं तप उच्यते । तत्कि ? प्रायश्चितविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गंध्यानलक्षणं । तत्र नवविधं प्राय
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वास करना, अवमौदर्यं अर्थात् एक ग्रास आदि अल्पाहार लेना, वृत्तिपरिसंख्यान अर्थात् गिनतीके घरों में भोजन करना अथवा भोजन की वस्तुओं की संख्या निश्चित करना आदि रस परित्याग अर्थात् घी-दूध दही मीठा तेल और नमक इन छह रसों में से किसी का त्याग करना, विविक्त शय्यासन अर्थात् जन्तु, स्त्री पशु और नपुंसकों से रहित शून्यागार आदि स्थानों में आसन लगाना - बैठना, शय्या - सोना अथवा ठहरना और कायक्लेश अर्थात् मात्र जल और भात आदि का भोजन कर शरीर को क्लेश पहुँचाना, अथवा आतापनादि योग धारण करना ये छह बाह्य तप हैं। ये तप बाह्य भोजन आदि की अपेक्षा रखकर प्रवृत्त होते हैं, दूसरों के देखने में आते हैं अथवा अन्य मतमें पाषण्डि गृहस्थों के द्वारा भी किये जाते हैं इस लिये बाह्य तप कहलाते हैं । इस बाह्य तपसे कर्मोंका भस्म होना, इन्द्रियोंको ताप करना, संयम, रागका नाश, कर्मनाश, ध्यान आदि, आशाका निवृत्त होना, शरीर के तेजका ह्रास होन्स, ब्रह्मचर्य, दुःख सहन करने का अभ्यास होना, सुख में आसक्ति का न होना तथा आगम की प्रभावना होना आदि फलकी प्राप्ति होती है ।
अब छह प्रकारके अभ्यन्तर तपका वर्णन करते हैं चूं कि यह तप अन्य मतावलम्बियों के अशक्य है, स्वसंवेदन से ही इसका अनुभव होता है, और बाह्य पदार्थों की इसमें अपेक्षा नहीं रहती, इसलिये यह अन्तरङ्ग तप कहलाता है । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्गं और ध्यान ये छह अन्तरङ्ग तपके भेद हैं। इनमें प्रायश्चित्त के नौ, विनय के चार, वैयावृत्य के दश, स्वाध्याय के पाँच, व्युत्सर्ग के दो और ध्यानके चार भेद हैं। छह बाह्य और छह अभ्यन्तर दोनों मिलाकर बारह प्रकारका तप है।
१. इति क प्रती केनापि संशोधितं ।
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