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भावप्राभृतम् भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववज्जिओ सवणो। कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ॥७॥
भावोपि दिव्यशिवसुखभाजनं भाववर्जितः श्रमणः ।
कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यगालयभाजनं पापः ।।७४॥ ( भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो ) इति विपुलानाम-गाथालक्षणं । भावोऽपि, अपिशब्दाद्रव्यलिंगमपि । दिव्य-दिवि भवं दिव्यं सौधर्मशानदेवीरतिक्रम्या
गाथार्थ-भाव तथा द्रव्य दोनों लिङ्गों का धारक मुनि स्वर्ग और मोक्ष-सम्बन्धी सुखोंका भाजन होता है तथा भावलिङ्ग से रहित पापी मुनि कर्म रूपी मलसे मलिन चित्त होता हुआ तिर्यञ्च गतिका पात्र होता है ।।७४॥
विशेषार्थ-भावो वि-भावोऽपि यहाँ अपि शब्दसे द्रव्य-लिङ्ग का भी समुच्चय होता है अतः गाथाका अर्थ इस प्रकार निकलता है कि भाव तथा द्रव्य दोनों लिङ्गों को धारण करने वाला मुनि स्वर्ग और मोक्षके सुखका भाजन होता है और भावसे रहित अर्थात् मात्र द्रव्य लिङ्गका धारक पापी मुनि कर्म रूपी मल से मलिन-चित्त होता हुआ तिर्यञ्च गतिका पात्र होता है। यहां इतना विशेष समझना चाहिये कि सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत स्वर्ग तकके सुख तो मुनिलिङ्ग के बिना भी प्राप्त हो सकते हैं क्योंकि गृहस्थ सम्यग्दृष्टि जीवका उत्पाद सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत स्वर्ग तक होता है उसमें भी सौधर्म और ऐशान स्वर्ग को देवियों को छोड़कर अन्य महद्धिक देवों में हो गृहस्थ सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है । यहाँ मात्र सौधर्म और ऐशान स्वर्ग की देवियों में इसका उत्पाद नहीं बताया है इसका यह अर्थ नहीं है कि आगामी स्वर्ग को देवियों में होता है. क्योंकि समस्त स्वर्गों की देवियों की उत्पत्ति सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में ही होती है अतः इन दो स्वर्गों की देवियों में ही सब स्वर्गों की देवियों का अन्तर्भाव हो चुकता है। सम्यग्दृष्टि जीवका उत्पाद किसी भी प्रकार स्त्रियों में नहीं होता है। अच्युत स्वर्ग से ऊपर उत्पन्न होनेके लिये मुनि लिङ्गका होना आवश्यक रहता है इसलिये भाव लिङ्ग सहित द्रव्य लिङ्ग के द्वारा यह जीव सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थ-सिद्धि तकके सुख प्राप्त करता है। इसमें भी विशेषता यह है कि यदि कोई अभव्य जोव मुनिव्रत धारण करता है तो उसके भावलिङ्ग नहीं हो सकता, सदा द्रव्य-लिङ्ग ही रहता है और उस द्रव्य-
लिङ्ग के प्रभाव से
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