Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्नाभृते - [५.७४न्यतरमहर्दिकदेवसुखं सौधर्माद्यच्युतस्वर्गपर्यन्तं सुखं द्रव्यलिंगम न्तरेण भावनीयं । तद्युक्तद्रव्यलिंगेन सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं सुखं ज्ञातव्यं । कस्यचिदभव्यस्य भावलिंगमन्तरेण द्रष्यलिंगेन नववेयकपर्यन्तं पुनः पुनर्भवपातहेतुभूत सुखं ज्ञातव्यं । तेनास्य पादस्य पुनरर्थः प्रकाश्यते । भावोऽपि दिव्यशिवसौख्यभाजनं स्वर्गमोक्षसौख्यभाजनं । ( भाववज्जिओ सवणो ) भाववर्जितः श्रवणो जिनसम्यक्त्वरहितो दिगम्बरः । (कम्ममलमलिणचित्तो) कर्ममलेन अतिचारानाचारातिक्रमव्यतिक्रमव्यतिक्रमचेष्टितो पार्जितपापेन दोषेण मलिनचित्तः मलिनं मलदूषितं चित्तमात्मा यस्य स भवति कर्ममलमलिनचित्तः । ( तिरियालयभायणो पावो ) तिर्यगालयभाजनं तिर्यग्गतिस्थान भवति, पापः पापात्मा विचित्रमतिनाममंत्रिपुत्रवत् ।।
भी वह नौवें ग्रेवेयक तकके सुख प्राप्त कर सकता है। अभव्य जीवका यह स्वर्ग-सम्बन्धी सुख पुनः संसार में पतन का ही कारण है, ऐसा जानना चाहिये । इस पादका दूसरा अर्थ. ऐसा भी हो सकता है कि भाव-लिंगी मुनि ही स्वर्ग और मोक्ष सुखका पात्र होता है। भाव-लिंगी मुनिकी यदि सराग चारित्र दशा में मृत्यु होती है तो वह मरकर स्वर्ग में ही उत्पन्न होता है, मोक्ष नहीं जा सकता क्योंकि मोक्षजाने के लिये पूर्ण वीतराग चारित्रकी आवश्यकता होती है और पूर्ण वीतराग चारित्र दशा में पर्याय समाप्त होती है तो मोक्ष जाता है इस तरह भाव-लिंगी मुनि स्वर्ग तथा मोक्ष दोनों जगह जाते हैं परन्तु भावसे. रहित पापी तिर्यञ्च गतिका पात्र होता है। यहाँ भाव-रहित होनेके साथ-साथ पापी विशेषण भी दिया है उससे सिद्ध होता है कि जो द्रव्यसे मुनिपद रखकर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करते हुए पापोपार्जन करते हैं वे तिर्यञ्च गतिके पात्र होते हैंनिगोद तक में उत्पन्न होते हैं। वैसे करणानुयोग की अपेक्षा सम्यक्त्व न होनेके कारण जो भाव-लिंगी नहीं कहलाते फिर भी चरणानुयोग की पद्धति के अनुसार समीचीन आचरण करते हैं ऐसे द्रव्य-लिंगी मुनि नौवें ग्रैवेयक तक उत्पन्न होते ही हैं। भाव अर्थात् जिन-सम्यक्त्वसे रहित साधु जब चरणानुयोग में वर्णित मुनिके आचार विचार में भी श्रद्धा नहीं रखता तथा अतिचार अनाचार अतिक्रम और व्यतिक्रम रूप चेष्टाओंके द्वारा पाप कर्मका उपार्जन करने लगता है तब उसका चित्त सदा मलिन रहता है। उस दशा में वह पापी कहलाता है और विचित्रमति नामक मन्त्रीके पुत्रके समान तिर्यञ्च गतिका पात्र होता है । इस गाथा में विपुला नामक आर्या छन्द है ।।७४||
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