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पट्प्रामृते
[५.७३हत्सर्वशवीतरागमते । कथंभूत, विमले पूर्वापरविरोधविजिते कर्ममलकलवृक्षयहेतुभूतं वा।
भावेण होइ गग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं । पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए ॥७३॥ 'भावे-भवति नग्नः मिथ्यात्वादींश्च दोषान् त्यक्त्वा।
पश्चाद्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिंगं जिनाज्ञयां ॥७३॥ .... ( भावेण होइ नग्गो ) भावेन परमधर्मानुरागलक्षणजिनसम्यक्त्वेन भवति, कीदृशो भवति ? नग्नः वस्त्रादिपरिग्रहरहितः ? किं कृत्वा पूर्व, ( मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं ) मिथ्यात्वादींश्च दोषांस्त्यक्त्वा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणास्रवद्वाराणि त्यक्त्वा । (पच्छा दव्वेण मुणी ) पश्चात् भावलिंगधरणादनन्तरं मुनिदिगम्बरः ( पयदि लिंगं जिणाणाए ) प्रकटयति स्फुटीकरोति, कि तत् ? लिंग-जिनमुद्रां, कया जिणाणाए-जिनस्याज्ञया जिनसम्यक्त्वेन सम्यक्त्वश्रद्धानरूपेणेति बीजांकुरन्यायेनोभयं संलग्नं ज्ञातव्यं । भावलिंगेन द्रव्यलिंग, द्रव्यलिगेन भावलिंगं भवतीत्युभयमेव प्रमाणीकर्तव्यं । एकान्तमतेन तेन सर्व नष्ट भवतीति वेदितव्यं । अलं दुराग्रहेणेति । दुर्गति का निवारण करने के लिये, पुण्य की पूर्ति करने के लिये और मुक्ति लक्ष्मी को देनेके लिये समर्थ है।
गाथार्य-मुनि पहले मिथ्यात्व आदि दोषों को छोड़ कर भावसे नग्न होता है, पीछे जिनेन्द्र देवकी आज्ञानुसार द्रव्य से लिंग प्रकट करता है-नग्न वेष धारण करता है।
विशेषार्थ-यहां भावका अर्थ परम धर्मानुराग रूप जिन-सम्यक्त्व है । मुनि पहले मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग रूप आस्रव द्वारों को छोड़कर भावसे नग्न होता है पोछे जिनेन्द्र देव की आज्ञानुसार द्रव्यलिंग को प्रकट करता है वस्त्रका त्यागी होता है पीछे जिनेन्द्र देवकी आज्ञानुसार द्रव्य-लिंगको प्रकट करता है अर्थात् वस्त्र का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण करता है। यहाँ द्रव्य-लिंग और भाव-लिंगको बीजांकुरन्याय से परस्पर संलग्न जानना चाहिये। अर्थात् जिस प्रकार बीजके बिना अंकुर और अंकुर के बिना बीज नहीं होता, उसी प्रकारसे भाव-लिंगके बिना द्रव्य-लिंग और द्रव्य लिंगके बिना भावलिंग नहीं होता। एकान्त मतसे सब सिद्धान्त नष्ट हो जाता है इसलिये द्रव्य-लिंग और भावलिंग दोनों को प्रमाण मानना चाहिये। इनमें पहले कौन होता है और पीछे कोन ? इसका दुराग्रह करना व्यर्थ है ॥७३॥
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