Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[५. ६९
षट्नाभृते मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य ।
यस्य परदोषकथने जिह्वा मौनव्रतं चरति ॥१॥ . हास्यं च वर्करः । मत्सरश्च परेषां शुभद्वेषः । उक्तं च
उद्युक्तस्त्वं तपस्विन्नधिकमभिभवं त्वय्यगच्छन् कषायाः प्राभद्वोधोऽप्यगाधो जलमिव जलधौ किं तु दुर्लक्ष्यमन्यः । निव्यूढेपि प्रवाहे सलिलमिव मनाग्निम्नदेशेष्ववश्यं .
मात्सर्य ते स्वतुल्ये भवति परवशादुर्जयं तज्जं हीहि ॥ १ ॥ माया च परवंचना । उक्तं च
यशो मारीचीयं कनकमृगमायामलिनितं हतोऽश्वत्थामोक्त्या प्रणयिलधुरासीद्यमसुतः ।
स कृष्णः कृष्णोऽभूत्कपटबटुवेषेण नितरा. मपि च्छद्माल्पं तद्विषमिव हि दुग्धस्य महतः ॥१॥
मा भवतु-पर-हितमें तत्पर रहने वाले उस श्रेष्ठ पुरुषका कभी भी अहित न हो, जिसकी कि जिह्वा दूसरे के दोष कहने में मौनव्रत धारण करती है।
अपना बड़प्पन बतानेके लिये दूसरोंकी हँसी उड़ाना हास्य कहलाता है । दूसरोंके शुभ कार्योसे द्वेष रखना मत्सर कहा जाता है। यह मत्सर भाव प्रायः बड़े-बड़े लोगों में भी पाया जाता है। कहा है__ उद्युक्तस्त्वं - हे तपस्विन् ! यद्यपि तू अधिक सावधान है, कषायें भी तुझमें पराभव को प्राप्त हैं अर्थात् तूने कषायों को प्रभाव-हीन किया है,
और समुद्र में जलके समान अगाध ज्ञान भी तुझ में प्रकट हुआ है तथापि जिस प्रकार प्रवाह के निकल जाने पर कितने हो नीचे स्थानों में पानी भरा रह जाता है और वह दूसरों की दृष्टि में नहीं आता उसी प्रकार कषाय आदि रूप प्रवाह के निकल जाने पर भी जो दूसरों की दृष्टि में नहीं आता, ऐसा अपनी समानता रखने वाले जीवों में तेरा मात्सर्य भाव शेष रह गया है, भले हो वह दूसरों के वशसे हुआ है और दुर्जय है तो भी तू उसे अवश्य छोड़।
माया का अर्थ दूसरे को ठगना है। कहा भी है
यशो मारीचीयं-मारीच का यश सुवर्ण मृग की माया से मलिन हो . १. आत्मानुशासने । २. तपस्यधिक मुद्रितात्मानुशासने । ३. मुद्रितात्मानुशासने 'वामगच्छन' इति पाठः।
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