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बोधामृतम्
भूभृल्लोकाविरुद्धः स्वजनपरिजनोन्मोचितो वीतमोह"श्चिन्तापस्माररोग द्यपगत इति च ज्ञातिसंकीर्तनाद्यः ॥ इति वीरनन्दिभिरुक्तत्वात् । अथ कानि तान्यष्टावङ्गानीति चेत् ? या बाहूय तहाणियंबपुठ्ठी उरं च सीसं च । अट्ठेव दु अंगाई सेस उवंगाइ देहस्स || कुरूपिणो हीनाधिकाङ्गस्य कुष्ठादिरोगिणश्च प्रव्रज्या न भवति । ( णिमाणासा) निर्माना अष्टमद रहिता, निराशा आशा रहिता ।
उक्तञ्च
--४. ४९ ]
' आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य कि कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥
पहलेसे जानते हों, जो उत्तम देशका रहने वाला हो, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में से किसी वर्णका हो, अङ्गोंसे पूर्ण हो - विकलाङ्ग अथवा अधिकाङ्ग न हो, राजाका अपराधी न हो, स्वजन और परिजन के लोगोंने जिसे छोड़ दिया हो- दीक्षा लेने की अनुमति दे दी हो, मोहरहित हो, चिन्ता तथा अपस्मार ( मूर्च्छाविशेष ) आदि रोगोंसे रहित हो । अब वे आठ अङ्ग कौन हैं जिनकी पूर्णता साधुको आवश्यक है । इसका उत्तर देते हैं
जलया - दो पैर, दो भुजा, नितम्ब, पृष्ठ, छाती और शिर ये शरीर के आठ अङ्ग हैं और शेष उपाङ्ग कहलाते हैं ।
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कुरूपी होनाङ्ग, अधिकाङ्ग और कुष्ठादिरोगसे युक्त मनुष्य की दीक्षा नहीं होती है।
प्राकृत के 'णि माणासा' शब्दकी निर्मानाशा और निर्मानाश्वा ये दो संस्कृत छाया होती हैं अतः दोनों को दृष्टिमें रखते हुए अर्थ किया गया है कि जो निर्माना-आठ मदसे रहित हो, और निराशा तृष्णासे रहित हो ( मानश्च आशा च मानाशे, निर्गते मानाशे यस्याः सा निर्मानाशा ) । आशा बहुत दुःखदायी है जैसा कि कहा गया है -
आशागर्तः - प्रत्येक प्राणीके सामने ऐसा आशा रूपी गड्ढा खुदा हुआ है जिसमें समस्त संसार अणुके समान है । फिर किसके लिये कितना
१. श्चिता म० ।
२. कर्मकाण्डे नेमिचन्द्रस्य ।
३. आत्मानुशासने गुणभद्रस्य ।
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