Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-५. १५ ]
भावप्राभृतम्
षोडशाद्ये सहस्राणि विक्रियोत्थाः पृथक्च ताः । द्विगुणा द्विगुणास्तस्मात्परत्र सममात्मना ॥३॥ १६०००-३२०००-६४०००- १२८००० २५६००० - ५१२००० - १०२४००० 1 क्रमाद्वात्रिंशदष्ट द्वे सहस्राः पंचशत्यथ । अर्घार्घारच त्रिषष्ठिश्च सप्तस्थानेषु वल्लभाः ||४|| सप्तस्थानानि कानि ? सौधर्मेशानी १, सानत्कुमारमाहेन्द्री २, ब्रह्मब्रह्मोत्तरी ३, लान्तवकाषिष्ठी, ४, शुक्रमहाशुक्रौ ५, शतारसहस्रारी ६, आनतप्राणतारणाच्युताश्चत्वारः स्वर्गा एक स्थानमिति सप्तस्थाना नि इत्यादि देव्यादिद्धि दृष्ट्वा । ( माहम्म बहुविहं दट्टु ) इन्द्रवाचा दीर्घायुरपि म्रियते अल्पायुषोऽप्यायुर्न 'त्रुटयते इत्यादि माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट्वा । ( होऊण हीणदेवो ) होनदेवो भूत्वा । ( पत्तो वहुमाणसं दुःखं ) प्राप्तोऽसि बहुतरं प्रचुरं मनसि भवं मानसं दुःख हे जीव ! त्वमिति कारणात् जिनभक्ति कुर्विति भावार्थः ।
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षोडशाद्ये- - प्रथम स्वर्ग में सोलह हजार देवियोंका परिवार है। विक्रिया से अनेक रूप बनाने वाली देवाङ्गनाएँ इनसे पृथक् हैं । आगे आगे के स्वर्गों में इनकी संख्या क्रमसे दूनी दूनी होती जाती है, जो इस प्रकार है १६०००, ३२०००, ६४०००, १२८०००, २५६०००, ५१२०००,
• १०२४००० क्रमाद् नीचे लिखे सात स्थानों में इन्द्रों के क्रमसे बत्तीस हजार, आठहजार, दो हजार, पाँचसो, ढाइसौ, सवासौ और तिरेशठ, बल्ल भिकाएँ यानी- अत्यन्त प्रिय देवाङ्गनाएँ होती हैं । सप्त स्थान इस प्रकार हैं
१ सौधर्मेशान, २ सानत्कुमार माहेन्द्र, ३ ब्रह्मब्रह्मोत्तर, ४ लान्तव कापिष्ठ, ५ शुक्रमहाशुक्र, ६ शतारसहस्रार और ७ आनत प्राणत आरण अच्युत इन चार स्वर्गोंका एक स्थान ।
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देवों का माहात्म्य भी नाना प्रकारका होता है जैसे इन्द्रके कहने से दीर्घायु मनुष्य भी मर जाता है और अल्प आयु वालेकी भी आयु जल्दी समाप्त नहीं होती । हे जीव ! अन्य हीन देव होकर देवोंकी गुण रूप विभूति, ऋद्धि तथा बहुत प्रकारका माहात्म्य देख कर तूने बहुत मानसिक दुःख प्राप्त किया है इसलिये अब तू जिन भक्ति कर, जिससे हीन देवकी अवस्था पुनः प्राप्त न हो ॥ १५ ॥
१. त्रुदयति म० ।
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