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-५. ४५ ] भावप्राभृतम्
३०१ प्रापुः । सत्पुरुषास्तद्वान्धवाश्च विषादं प्रापुः । वञ्चनाकृतं पापमर्थिनो न पश्यन्ति । अथाष्टदिनानि महापूजां जिनेशिनामभिषेकं च कृत्वा स्नातालंकृतां शुद्धतिथिवारादिसन्निधौ कन्यां पुरोहितो रथमारोप्य नीत्वा सुभटपरिवृतान् भद्रासनारूढान् नृपान् स्वयंवरमण्डपे यथाक्रमं पृथक्कुलजात्यादिकं विनिर्दिश्य विरराम । सा तु समासक्ता सगरं वरमालया वरयामास । निर्मत्सरं राजमण्डलं तु तुतोष । अनयोरनुरूपः संगमो विधात्रा कृत इति । विवाहविधौ च जाते सगरः सुलसासहितस्तत्र कानिचिद्दिनानि तत्र सुखेन स्थित्वा साकेतं गतः । भोगसुखमनुभवन् स्थितः । मधुपिंगलस्तु साधुः कस्मिश्चित्पुरे भिक्षार्थं प्रविशन् केनचिज्जैनेन नैमित्तिकेन दृष्टः । राज्याहलक्षणोऽयं भिक्षाशी किलक्षणशास्त्रणेति निनिन्द । तदाकर्ष्यापर एवं बभाषे। राजलक्ष्मी भुजान एष सगरमंत्रिणा वृथा दुषितः कृत्रिमं सामुद्रिक
इष्ट जन विषादको प्राप्त हुए । ठीक ही है स्वार्थी मनुष्य वञ्चनाके द्वारा किये हुए पापको नहीं देखते हैं ।
तदनन्तर लगातार आठ दिन तक जिनेन्द्र भगवान् की महापूजा और अभिषेक किया गया। तथा शद्ध तिथि और शद्ध वार आदिके उपस्थित होनेपर जिसे स्नान कराकर उत्तमोत्तम अलंकार पहिनाये गये थे और जो उत्तम योद्धाओंसे घिरी थी ऐसी उस कन्या को रथ पर बैठा कर पुरोहित स्वयंवर मण्डपमें ले आया और उत्तमोत्तम आसनों पर बैठे हुए राजाओंको लक्ष्य करके क्रम क्रमसे उनके अलग अलग कुल तथा जाति आदिका निर्देश करके चुप हो रहा। किन्तु कन्या तो सगर राजामें आसक्त थी इसीलिये उसने वरमालासे उसे वर लिया। वहाँ जो राजा ईर्ष्या-रहित थे वे 'विधाताने इनका योग्य सम्बन्ध जुटाया है' यह कहते हुए सन्तुष्ट हुए। विवाह विधिके हो जाने पर सगर सुलसाके साथ वहाँ कुछ दिन तक सुखसे रहकर अयोध्या चला गया और भोग सम्बन्धी सुखका अनुभव करता हुआ रहने लगा। ..उधर मधुपिंगल मुनि भिक्षाके लिये किसी नगरमें प्रवेश कर रहे थे। प्रवेश करते समय किसी जैन निमित्त-ज्ञानीने उन्हें देखा। उन्हें देखकर वह यह कहकर सामुद्रिक शास्त्र को निन्दा करने लगा कि यह पुरुष तो राज्य-प्राप्तिके योग्य लक्षणोंसे सहित है परन्तु भिक्षा-भोजी हो रहा है लक्षण शास्त्र से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् लक्षण शास्त्र मिथ्या है। निमित्त ज्ञानीको बात सुनकर दूसरा आदमी इस प्रकार कहने लगा कि यह तो राज्यलक्ष्मीका ही उपभोग करता था परन्तु सगर राजाके मन्त्रीले
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