Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते
[ ५.५५
( भावेण ) जिनराजसम्यक्त्वेन । ( होइ णग्गो ) भवति नग्नो निर्ग्रन्थस्वरूपः । ( बाहिरलिंगेण किचनग्गेण ) बहिलिगेन किं च बाह्यनग्नतया न किमपि मोक्षलक्षणं कार्यं सिद्धयति पशूनामिव । ( कम्मपयडीण गियरं ) कर्मप्रकृतीनां निकरं समूहः अष्टचत्वारिंशदधिकशत्संख्यानां वृन्दं ( णासह भावेण दव्वेण ) नश्यति भावेन द्रव्येण चेति । ये मिथ्यादृष्टयो गृहस्था अपि सन्तोऽस्माकं भावो विद्यते इति वदन्ति स्त्रीभिः सह ब्रह्मचर्यं च भजन्ति ते 'लौका: चार्वाकसदृशा नास्तिकास्तन्मतनिरासार्थमिदं वचनमुक्तं श्री कुन्दकुन्दाचार्य स्वामिभिः. ( णासइ भावेण दव्वेण ) भावेण - कर्मक्षयो भवति भावपूर्वक द्रव्यलिगेन गृहीतेन भावद्रव्यलगाभ्यां कर्म प्रकृतिनिकरो नश्यति न त्वेकेन भावमात्रेण द्रव्यमात्रेण वा कर्मक्षयो भवति । इति व्याख्यानबलेन ते नास्तिका पूर्ववच्छिक्षणीया भावार्थ: ।
णग्गत्तणं अकज्जं भावणरहियं जिर्णोहि पण्णत्तं । इय णाऊण य णिच्चं भाविज्जहि अप्पयं धीर ॥ ५५ ॥ नग्नत्वं अकार्य भावरहितं जिनेः प्रज्ञप्तम् । इति ज्ञात्वा च नित्यं भावयेः आत्मानं धीर ॥५५॥
विशेषार्थ - भाव अर्थात् जिन सम्यक्त्व से ही निर्ग्रन्थ रूप प्राप्त होता है। पशुओं के समान केवल बाह्य- लिङ्ग रूप नग्न मुद्रा धारण करनेसे मोक्ष रूप कार्य सिद्ध नहीं होता कर्मोंकी एकसौ अड़तालीस प्रकृतियोंका 'समूह भाव और द्रव्य दोनों लिङ्गोंके धारण करनेसे ही नष्ट होता है। जो मिथ्यादृष्टि गृहस्थ होते हुए भी कहते हैं कि हमारे मुनिका भाव विद्यमान है, तथा स्त्रियों के साथ रहते हुए ब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं वे लौंक लोग चार्वाकोंके समान नास्तिक हैं उनके मतका निराकरण करने के लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य स्वामी ने यह वचन कहा है 'णासइ भावेण दव्वेण ' अर्थात् भावपूर्वक द्रव्यलिङ्ग के ग्रहण करने में ही कर्म प्रकृतियों का समूह नष्ट होता है, केवल भावसे अथवा केवल द्रव्यसे नष्ट नहीं होता । इस व्याख्या के बलसे वे नास्तिक पहले की तरह शिक्षा देने योग्य हैं ॥ ५४ ॥
गाथार्थ - जिनेन्द्र भगवान् ने भाव रहित नग्नत्वको अकार्य - कार्य - रहित कहा है ऐसा जान कर हे धीर पुरुष ! निरन्तर आत्मा की भावना करना चाहिये ॥ ५५ ॥
१. लौका क० ।
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