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-५. ५४ ] भावप्रामृतम्
३७९ आत्मानं शरीरकर्मचयाद्भिन्न जानाति । तद्ग्रन्थं नायाति गुरुणा प्रोक्तं दृष्टान्तं पुनः पुनस्तीक्ष्णीकरोति तुषान्माषो भिन्न इति यथा तथा शरीरादात्मा भिन्न इति । तं शब्दं घोषयन्नपि कदाचिद्विस्मृतवान् । अर्थ जानन्नपि शब्दं न जानाति । एकाकी विरहति च । शब्दविस्मरणक्लेशावर्ती कांचिद्युवति वटकादिकपचनार्थ माषान् सूपीकृतान् जलमध्येप्लावितांस्तुषेभ्यो भिन्नान् कुर्वन्तीं दृष्ट्वा पृष्टवान् कि कुरुषे भवति ! इति । सा प्राह-तुषमाषान् भिन्नान् करोमि। स आह-मया प्राप्तमिति क्वचिद्गतः । तावन्मात्रद्रव्यभावश्रुतेनात्मन्येकलोलीभावं प्राप्तोऽन्तमुहूर्तेन केवलज्ञानं प्राप्य नवकेवलब्धिमान् देशान् विहृत्य भव्यजीवानां मोक्षमार्ग प्रदर्श्य मोक्षं गत इति ।
इति श्रीभावप्राभते शिवभूतिमुन्युपाख्यानं समाप्तं । भावेण होइ जग्गो बाहिरलिंगेण किं च नग्गेण । कम्मपयडीण णियरं णासइ. भावेण दवेण ॥१४॥
भावेन भवति नग्नः बहिलिगेन किं च नग्नेन ।
कर्मप्रकृतीनां निकरं नश्यति भावेन द्रव्येण ।। ५४ ।। .. जिस प्रकार तुष से माष उड़द भिन्न है, उसी प्रकार शरीर से आत्मा भिन्न है, बार बार उच्चारण कर पक्का करते रहते थे। उस शब्दका उच्चारण करते रहने पर भी वे कदाचित् उसे भूल गये । अब वे अर्थको तो जानते थे परन्तु शब्द नहीं जानते थे। अकेले ही विहार करते थे इसलिये ( किसो से पूछनेका अवसर भी नहीं मिलता था)। शब्द के भूल जाने का क्लेश उन्हें बार बार उठा करता था। उन्होंने एक बार किसी स्त्री को बड़े आदि बनाने के लिये दाल रूप परिणत उड़दों को पानी के मध्य डुबाकर तुषों से पृथक करती हुई देखा और देखकर पूछा कि आप यह क्या कर रही हैं ? उस स्त्री ने उत्तर दिया कि मैं तषों और उड़दोंको अलग अलग कर रही हूँ। मुनि बोले कि मैंने 'पा लिया। इतना कह कर वे कहीं चले गये। उतने मात्र द्रव्य और भाव श्रुतज्ञानके द्वारा वे आत्मा में इतनी तल्लोनता को प्राप्त हए कि अन्तमहर्तमें केवलज्ञान को प्राप्त कर नौ केवल लब्धियों से युक्त हो गये तथा देशों में विहार कर भव्य जीवोंको मोक्षमार्ग दिखलाते हुए मोक्ष गये।
इस प्रकार श्रीभावप्राभृत में शिवभूति मुनिको कथा समाप्त हुई। · गाथार्थ--भावसे नग्न होता है बाह्य लिङ्ग रूप नग्न वेषसे क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ नहीं भावसहित द्रव्यलिङ्ग के द्वारा ही कर्मप्रकृतियोंका समूह नष्ट होता है ॥ ५४॥
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