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षट्प्राभूते
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उपाध्यायस्त्वेका गृहादिकं त्यजन् वसुं गरबोवाच- पर्वतस्तन्माशा च द्वानपि मन्दषियो तथापि मत्परोक्षे त्वया सर्वथा भद्र ! पालनीयाविति । वसुरुवाच - हे पूज्यपाद भवदनुग्रहावहं प्रीतोऽस्मि । एतदनुक्तमेव सिद्धं । अस्मिन् कार्ये ममेदं कि वक्तव्यं । अत्र सन्देहो न कर्त्तव्यः । यथोचितं परलोकं कर्तुमर्हति भवान् । इति मनोहरकथा' म्लानमालया द्विजोत्तमं नृप आनचं । क्षोरकदम्ब उपाध्यायस्तु सम्यक्संयमं प्राप्य संन्यासं कृत्वोत्तमं स्वर्गलोकमवाप । पर्वतस्तु पितृस्थानमध्यास्य २ विश्वविशिष्याणां व्याकतु रति चकार । तस्मिन्नेव नगरे नारदो विद्वज्जनान्वितः सूक्ष्मबुद्धिविहितस्थानो व्याख्याया यशो बभार । एवं तयोः काले गच्छति सत्येकदा विद्वत्सभाय "अजेयं ष्टव्यमिति" वाक्यस्यार्थप्ररूपणे महान् विवादो बभूव । नारदः प्राह - अकुरशक्तिरहितं यवबीजं त्रिवर्षस्थं अजमिति कथ्यते तद्विकारेण वन्हिमुखे देवार्चनं विद्वांसो यज्ञं वदन्ति । पर्वत उपन्यसति स्म अजशब्देन पशुवस्तद्विकारेण हिरण्यरेतसि होत्रं 'यज्ञो विधीयते । इति तयोः
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इस तरह पर्वत और नारद दोनोंका समय बीत रहा था। एक दिन विद्वानोंको सभामें "अजेयंष्टव्यम्" इसका अर्थ निरूपण करने में विवाद उठ खड़ा हुआ । नारद कह रहा था कि अंकुर की शक्तिसे रहित तोन वर्षके पुराने जी 'अज' कहलाते हैं। उनसे बने हुए साकल्य के द्वारा अग्निकुण्ड में देव पूजा करनेको विद्वान् लोग यज्ञ कहते हैं और पर्वत कहता था कि अज शब्दसे पशुका एक भेद अर्थात् बकरा लिया जाता है उसके द्वारा निर्मित सामग्रीसे अग्नि में होम करना यज्ञ कहलाता है। इस प्रकार उन दोनों विद्वानोंके व्याख्यान को सुनकर साधु स्वभाववाले श्रेष्ठ ब्राह्मण बोले कि प्राणि-वध धर्म नहीं होता । नारदके ऊपर ईर्ष्यालु होनेके - कारण यह दुष्ट पर्वत पृथिवी पर अधर्म चलानेके लिये ऐसो व्याख्या कर रहा है। यह पापी है तथा साथ साथ वार्तालाप करने आदि कार्योंके अयोग्य है अर्थात् इस पापीके साथ वार्तालाप भी नहीं करना चाहिये । ऐसा कह कर लोगोंने उसे चाँटों से पीटा और अपमानित कर लोकमें घोषित कर दिया कि यह पापी है। दुर्बुद्धिका यही ऐसा फल होता है।
१. म्लानं मालाया ड० ।
२. विश्वदिक शिक्षाणां म० विश्व शिक्षाणां ङ० ।
३. व्याकतु मिति चकार क० । ४. ( यशोऽभिधन्ते )
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