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भावप्राभृतम्
उवाच
धोती संसारे न पततीत्यागमः । भव्यसेनस्य कथा यथा - विजयार्द्धगिरी दक्षिणश्रेणी मेघकूटपत्तने राजा चन्द्रप्रभः सुमतिमहादेवी कान्तश्चन्द्रशेखराय राज्य दत्वा परोपकारायं जिनमुनिवन्दना भक्त्यर्थं च कांश्चन विद्यां दधानो दक्षिणमधुरामागत्य मुनिगुप्ताचार्यसमीपे क्षुल्लको जातः । स एकदा जिनमुनिवन्दना भक्त्यर्थं - मुत्तरमथुरां चलितः सन् श्रीमुनिगुप्तमाचार्यं प्रपच्छ कि कस्य कथ्यत इति । गुप्त - सुब्रतमुनेर्नमोऽस्तु वरुणमहाराजमहादेव्या रेवत्या धर्मवृद्धिरिति वक्तव्यं त्वया । एवं त्रीन् वारान् पृष्टो मुनिस्तदेवोवाच क्षुल्लकः स्वगतं एकादशाङ्गधारिणो भव्यसेनाचार्यस्यान्येषां च नामापि भगवान् नादत्तं तत्र प्रत्ययेन भवि - तव्यमिति विचार्य तत्र गतः । सुव्रतमुनेर्भट्टारकीयां वन्दनां कथयित्वा तदीयं विशिष्टं वात्सल्यं च दृष्ट्वा भव्यसेनवसतिं जगाम । तत्र भव्यसेनेन संभाषणमपि न कृतं । कुण्डिकां गृहीत्वा भव्यसेनेन सह बहिर्भूमि गत्वा विकुर्वणां कृत्वा हरितकोमलतृणांकुरच्छन्नो मार्गो दर्शितः । तं मार्ग दृष्ट्वा भव्यसेन आगमे किलते
लिये नमोस्तु और महाराज वरुणकी महादेवी रेवतीसे धर्मवृद्धि कहना । इस तरह क्षुल्लकने तीन बार पूछा और मुनि ने तीन ही बार वही उत्तर दिया | क्षुल्लक ने अपने मनमें विचार किया कि ग्यारह अङ्गके धारी भव्यसेनाचार्यं तथा अन्य मुनियोंका भगवान् नाम भी नहीं लेते हैं उसमें कुछ कारण अवश्य होना चाहिये ऐसा विचार कर वे चले गये । सुब्रत मुनिके लिये भगवान् मुनि गुप्ताचार्य की वन्दना कह कर तथा उनका विशिष्ट वात्सल्य देखकर क्षुल्लक भव्यसेन की वसतिका को गये । वहाँ भव्यसेन ने उनके साथ संभाषण भी नहीं किया । क्षुल्लक कमण्डलु लेकर भव्यसेन के साथ बाह्यभूमि में गये और विक्रिया कर उन्होंने हरे कोमल तृण कुरोंसे आच्छादित मार्ग दिखाया। उस मार्गको देखकर भव्यसेन आगम में ये जीव कहे जाते हैं, ऐसा कह आगममें अश्रद्धा करता हुआ तृणोंके ऊपर चलने लगा । जब भव्य सेन शौचके लिये गया तब क्षुल्लक ने कमण्डलुका जल सुखा कर कहा - भगवन् ! कमण्डलु में पानी नहीं है तथा पासमें कहीं ईंट आदि पदार्थ भी नहीं देख रहा हूँ अतः इस निर्मल सरोवर में मिट्टी से शुद्धि कर लीजिये । तदनन्तर वहाँ भी उसने 'तथास्तु' कह कर शुद्धि कर ली। इन सब घटनाओंसे क्षुल्लकने द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि जानकर भव्यसेनका 'यह तो अभव्यसेन है' इसप्रकार दूसरा नाम रख दिया । मदनन्तर किसी दिन उस क्षुल्लक ने पूर्व दिशा में ब्रह्मा का रूप दिखाया । उस समय वह पद्मासन से बैठा था, चारों दिशाओंमें उसके चार मुल
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