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भावप्राभृतम्
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कारणं स्वपरघातका वर्तन्ते । तेन त्वं भावसंयममघातमकृत्वा तव प्रासुकाशनं संपाद्य पर्युपासनमहं कुर्वे । बन्धुवियोगं विना संयमे प्रवृतिस्तवापि दुर्लभेति हितं वचनं जगाद च। सोऽपि तद्विदित्वा आचाम्लनिर्विकृतिर सरहितभोजनः सन् दिव्यस्त्रीसन्निधौ स्थित्वापि सदा विकाररहितमनाः स्त्रियास्तृणाय मन्यमानः खङ्गतीक्ष्णधारायां संवर्तमानो द्वादशसंवत्सरांस्तपः कृत्वा संन्यासं गृहीत्वा जीवितान्ते ब्रह्मेन्द्रनाम्नि कल्पे विद्युन्माली देहदीप्तिव्याप्तदिवतटो देवो बभूव । विद्युन्मालिन एवाष्टदेव्योऽत्रागत्य जम्बूनाम्नः तत्र चतस्रो भार्याः पद्मकनकविनयरूपश्रियो भूत्वा निजभर्त्रा सह दीक्षित्वाऽच्युतकल्पं गत्वा स्त्रीलिंगच्युता देवा भूत्वा पश्चादत्रागत्य मोक्षं यास्यन्ति । सागरदत्तनामा स्वर्गं गत्वात्रागत्य निर्वाणं यास्यति । इति जम्बूस्वामिari श्रुत्वा श्रेणिको जहर्ष ।
इति श्रीभावप्राभृते शिवकुमारकथा समाप्ता ।
घरके लोग तुम्हारे शत्रु हैं, पापके कारण हैं तथा स्वपरका घात करने वाले हैं। इसलिये तुम भाव संयमका घात किये बिना प्रवृत्ति करो अर्थात् संयम धारण करने का जैसा तुम्हारा भाव है उसके अनुसार प्रवृत्ति करो, मैं प्राक आहार देकर तुम्हारी सेवा करता हूँ । घरके लोगोंको छोड़े बिना संयम में तुम्हारी भी प्रवृत्ति दुर्लभ है, इस प्रकारके हितकारी वचन कहे। शिवकुमार ने भी यह जान कर आचाम्ल, निर्विकृति तथा नीरस भोजन का नियम ले लिया । वह सुन्दर स्त्रियोंके पास रह कर भी सदा निर्विकार चित्त रहता था और स्त्रियोंके तृण्ण के समान तुच्छ मानता हुआ खङ्ग तीक्ष्ण धारा व्रतका लगातार बारह वर्ष तक पालन करता रहा । अन्त में संन्यास धारण कर ब्रह्मेन्द्र नामक स्वर्ग में शरीर की प्रभासे दिशाओं को व्याप्त करता हुआ विद्युन्माली नामक देव हुआ । विद्युन्माली देवकी जो आठ देवियाँ थीं उनमें चार देवियाँ जम्बू कुमार की पद्मश्री, कनकश्री, विनयश्री और रूपश्री नामकी स्त्रियाँ होकर अपने पति के साथ दीक्षा लेवेंगी और अच्युत स्वर्ग जाकर स्त्री लिङ्ग छेद देव होंगी पीछे यहाँ आकर मोक्ष जावेंगीं । सागरदत्त नामक मुनि पहले स्वर्ग जावेंगे फिर यहाँ आकर निर्वाण को प्राप्त होंगे ।
इस प्रकार जम्बूस्वामीका चारित्र सुनकर राजा श्रेणिक हर्षित हुआ । इस तरह भावप्राभृत में शिवकुमार की कथा समाप्त हुई ।
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