Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते
[ ५.५१
देवः सप्तसागरोपमायुर्बभूव । अहं भगदत्तचरः सागरदत्तश्चक्रिसुतः संजातः । त्वं भवदेवचरः शिवकुमारोऽत्र बभूविथ । स इति श्रुत्वा संसाराद्विरतो दीक्षां गृहीतुमुद्यतो बभूव । वनमालया मात्रा महापद्मेन पित्रा च वारितो वीतशोकं नगरं प्रविश्य संजातसंवित् अप्रासुकाहारं नाहरिष्यामीति व्रतं गृहीत्वा स्थितः । एतावतीदीक्षां विना प्राकाहारः कुतः ? भूपस्तद्वार्तां श्रुत्वा प्राह - यः कोऽपि शिवकुमारं भोजयति तस्मै सम्प्रार्थितमहं दास्यामीति सभायां घोषयामास । तद्विज्ञाय सप्तस्थानसमाश्रयो दृढधर्मनामा श्रावकः समागत्य शिवकुमारं प्राह । अथ कानि तानि सप्तस्थानानीति चेत्
सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं परिव्राज्यं सुरेन्द्रता ।
साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा ॥ १ ॥
अथ दृढधर्मा किं प्राहेति चेत् ? हे कुमार ! तव ज्ञातयः तव शत्रवः पापस्य
जिसकी खराब दशा हो रही थी ऐसी नागश्री को बुलाकर दिखलाया । भवदेव भी उसे देखकर तथा संसारकी स्थितिका स्मरण कर धिक्कार देता हुआ अपनी निन्दा करने लगा । उसने पुनः संयम धारण किया और आयु के अन्त में भाई भगदत्त के साथ आराधना का आश्रय लिया । समाधि से मर कर वह माहेन्द्र स्वर्ग में बलभद्र विमानमें सात सागरकी आयु वाला सामानिक जाति का देव हुआ मैं भगदत्तका जीव चक्रवर्तीका पुत्र सागरदत्त हुआ हूँ और तू भवदेवका जीव शिवकुमार हुआ है। इस प्रकार सुनकर शिवकुमार संसारसे विरक्त हो दीक्षा लेने के लिये उद्यत हो गया । वनमाला माता और महापद्म पिता ने उसे दीक्षा लेने से मना किया तो वह वीतशोक नगर में प्रवेश कर आत्म-ज्ञानसे युक्त हो यह नियम लेकर रहने लगा कि में अप्रासुक आहार नहीं करूंगा । इतनी दीक्षा विना उसे प्राक आहार कैसे प्राप्त होता था ? इसका उत्तर यह है कि राजाने उस बातको सुन कर सभामें ऐसी घोषणा करा दी थी कि जो कोई शिवकुमारको आहार करावेगा मैं उसके लिये मन चाही वस्तु दूंगा। यह जानकर सप्त स्थानोंके आश्रयभूत दृढधर्म नामक श्रावक ने आकर शिवकुमार से कहा । वे सप्त स्थान कौन हैं यदि यह जानना चाहते हो तो उसका उत्तर इस प्रकार है
सज्जाति-सज्जाति, सद्गृहस्थ, पारिब्रज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, उत्कृष्ट आर्हन्त्य पद और निर्वाण ये सात परम स्थान हैं ।
दृढ़धर्म श्रावक ने शिवकुमार से कहा था कि हे कुमार! तुम्हारे
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