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भावप्राभृतम्
दंडयणयरं सयलं डहिउं अब्भंतरेण दोसेण 1 जिणलिंगेण वि बाहू पडिओ सो रउरवं नरयं ॥ ४९ ॥ दण्डकनगरं सकलं दग्धवा अभ्यन्तरेण दोषेण । जिनलगेनापि 'बाहुः : पतितः स रोरवं नरकम् ||४९||
( दंडयणयरं सयलं ) दण्डकस्य राज्ञो नगरं सकलं । ( डहिउं अब्भंतरेण - दोसेण ) दग्ध्वा अभ्यन्तरेण दोषेण क्रोधेन कृत्वा । (जिणलिंगेण वि बाहू ) जिनलिगेनापि जिनलिंगसहितोऽपि बाहुर्नाममुनिः । ( पडिओ सो रउरवं नरयं ) पतितो गतः रौरवं नाम नरकं । अस्य कथा - दक्षिणापथे भरतदेशे कुम्भकारकटनगरे दण्डको नाम राजा । तन्महादेवी सुब्रता । बालको नाम मंत्री । तत्र अभिनन्दनादयः पंचशतमुनयः समागताः । खण्डकेन मुनिना बालको मंत्री वादे जितः । ततो रुष्टेन तेन भंडो मुनिरूपं कारयित्वा सुब्रतया समं रममाणो दर्शिनः । भणितं च तेन देव ।
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गाथार्थ - बाहु मुनि जिन लिङ्ग से सहित होने पर भी क्रोध कषाय रूप आभ्यन्तर दोष से राजा दण्डक के समस्त नगरको भस्म कर स्वयं रौरव नामक नरक में पड़ा ॥ ४२ ॥
विशेषार्थ - मात्र वाह्य लिङ्ग मनुष्य का कुछ उपकार नहीं कर सकता इसके समर्थन के लिये यहाँ बाहु मुनिका दृष्टान्त दिया गया है । यद्यपि वे बाह्य में जिनलिङ्ग से सहित थे, दिगम्बर मुद्राके धारी थे तथापि अन्तरङ्ग में क्रोध कषाय की प्रबलता हो जाने के कारण उनका भावलिङ्ग नष्ट हो गया, मात्र द्रव्य-लिङ्ग रह गया । उसी समय राजा दण्डक के समस्त नगरको भस्मकर वे रौरव नरक में जा पड़े - इनकी कथा इस प्रकार है
बाहु मुनिकी कथा
दक्षिणापथके भरत देश में एक कुम्भकारकट नामक नगर था उसमें दण्डक नाम का राजा रहता था । उसकी स्त्रीका नाम सुव्रता था और मन्त्रीका नाम बालक था । वहाँ एक बार अभिनन्दन आदि पाँचसो मुनि आये। उन मुनियों में एक खण्डक नामके मुनि थे । उन्होंने बालक नामक मन्त्री को वाद में परास्त दिया । उससे रुष्ट होकर उसने एक भाँडको मुनिका रूप रखा कर उसे सुव्रता रानी के साथ हँसी करते दिखाया तथा राजा से जाकर कहा कि हे देव ! आप दिगम्बर साधुओंकी भक्ति करने में चूंकि बहुत प्रमुख हो इसलिये उन्हें अपनी स्त्री भी देना चाहते हो ।
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