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षट्प्रामृते.
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[५. ४८२००००० । श्रीन्द्रिय २००००० । चतुरिन्द्रिय २००००० । सुरनरयतिरिवद्रोसुराणां जातयश्चतस्रो लक्षाः ४०००००। नारकाणां जातयश्चतम्रो लक्षाः ४००००० । तिरश्चां जातयश्चतस्रो लक्षाः ४००००० चोद्दस मणुए-चतुर्दश लक्षा जातयो मनुजे मनुष्यजीवानां १४००००० सदसहस्सा-शतसहस्राः । .
भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दवमित्तेण । तम्हा कुणिज्ज भावं कि कोरइ दलिगेण ॥४८॥ .. भावेन भवति लिङ्गी न हु भवति द्रव्यमात्रेण ।
तस्मात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिंगेन ॥४८॥ ( भावेण होइ लिंगी) भावेन निदानादिरहिततया जिनसम्यक्त्वसहिततया लिंगी सन् लिंगी भवति निदानादिसहितो जिनसम्यक्त्वरहितो लिंगी मुनिलिंगी जिनलिंगी सत्यलिंगी न भवति । (ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण ) न हु-स्फुर्टलिंगी सन्नपि लिंगी न भवति द्रव्यमात्रेण शिरोलोचमयूरपिच्छकमण्डलुग्रहणवस्त्रत्यजनमात्रेण लिंगी सन्नपि लिंगी न भवति पुनः संसारपतनहेतुत्वात् । (तम्हा कुणिज्ज भावं ) तस्मात्कारणात् कुर्यास्त्वं । के भाव-जिनसम्यक्त्वनिर्मलपरिगामं । ( किं कोरइ दवलिंगेण ) पूर्वोक्तद्रव्यलिंगेन किं क्रियते न किमपि मोक्षसुखं क्रियत इति भावः।
श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंकी सबकी मिलाकर छह लाख देव नारकियों और तिर्यञ्चोंकी चार चार लाख तथा मनुष्यों की चौदह लाख इस तरह सब मिलाकर चौरासी लाख योनियां हैं ॥४७॥
गाथार्य-मनुष्य भावसे ही लिङ्गका धारक मुनि होता है द्रव्य मात्रसे लिङ्गो मुनि नहीं होता अतः भावको प्राप्त करना चाहिये मात्र द्रव्य लिङ्गसे क्या किया जा सकता है ?
विशेषार्थ-भाव अर्थात् निदान आदिसे रहित तथा जिन सम्यक्त्व से सहित होनेके कारण ही यह मनुष्य लिङ्गी अर्थात् साधु होता है जिन सम्यक्त्व से रहित मुनि, मुनिलिङ्गी, जिनलिङ्गी अथवा सत्यलिङ्गी नहीं होता । द्रव्य मात्र अर्थात् केशलोंच, मयूर पिच्छ और कमण्डलु का ग्रहण तथा वस्त्र के त्याग रूप बाह्यवेष से मुनि होता हुआ भी पारमार्थिक मुनि नहीं होता क्योंकि भावके बिना मात्र द्रव्य वेष संसार पतन का हेतु है। इस कारण हे आत्मन! तू भावको कर अर्थात् जिन सम्यक्त्व से निर्मल परिणाम को प्राप्त कर । मात्र द्रव्यलिङ्ग से क्या किया जाता है अर्थात् कुछ भी मोक्ष सुख नहीं किया जाता ॥४८॥
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