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षट्प्राभूते ४.५०सर्वप्राणिसंयुक्तद्वारवती दाहे पापधी कृतनिश्चयः युवामेव न पक्ष्यामीत्यङ् गुलिद्वयेन संज्ञां चकार । अनिवर्तकक्रोघं ज्ञात्वा विषण्णो व्याधुट्य किं कर्तव्यतामूढी पुरीं प्रविष्टौ । तदा शंभवाद्याश्चरमाङ्गका यादवाः पुर्या निष्क्रम्य दीक्षां गृहीत्वा गिरिगुहादिषु तस्थिवांसः । द्वीपायनस्तु क्रोधशल्येन मृत्वा भवनामरो बभूव । सोऽग्निकुमारनामा विभंगेन पूर्ववरं स्मृत्वा द्वारवती बालवृद्धस्त्रीपशुसमेतां विष्णुबलौ मुक्त्वा ददाह । तौ दक्षिणापथे वनां प्रविष्टौ । तत्र विष्णुर्जरत्कुमारभिल्लेन पादे वाणेन ताडितो मृतः तृतीयं नरकं जगाम । द्वीपायनस्तु अनन्तसंसारी
बभूव।
जिसकी आपने रक्षा की है, क्षमा ही जिसकी जड़ है तथा जो मोक्षका साधन है ऐसे तपके समूह को रक्षा को जाय । मूर्ख तथा प्रमादसे भरे कुमारों ने आपके प्रति जो खोटो चेष्टा को है उसे क्षमा किया जाय । क्रोध चतुर्वर्ग का शत्र है, क्रोध निज और पर को नष्ट करने वाला है। हे मुनि ! हम लोगोंके लिये प्रसन्नता कीजिये। इस प्रकार प्रिय वचन कहते हुए कृष्ण और बलभद्रने यद्यपि उनके चरणों में लगकर प्रार्थना की तथापि वह पीछे नहीं हटा। जिसकी बुद्धि पाप-पूर्ण थी तथा समस्त प्राणियों से संयुक्त द्वारिका के जलाने का जो निश्चय कर चुका था ऐसे उस द्वोपायन ने दो अंगुलियां उठाकर संकेत किया कि मात्र तुम दोनोंको नहीं जलाऊँगा। 'इनका क्रोष दूर नहीं किया जा सकता' ऐसा जानकर खेद से भरे कृष्ण और बलदेव आदि किंकर्तव्य-विमूढ़ हो लौटकर नगरी में प्रविष्ट हुए। उसी समय शंभवकुमार आदि परम-शरोरी यादव नगर से निकल कर तथा दीक्षा लेकर पर्वत की गुफाओं आदि में स्थित हो गये । और द्वीपायन क्रोष की शल्यसे मरकर भवन-वासी देव हुआ। वह अग्निकुमार नामका भवनवासी हुआ था। उसने विभङ्ग अवधि ज्ञानके द्वारा पूर्व वेर का स्मरण कर बाल वृद्ध और पशुओं से सहित द्वारिकाको भस्म कर दिया, मात्र कृष्ण और बलदेव को छोड़ा। वे दोनों द्वारिका से चलकर दक्षिणापथ के वनमें प्रविष्ट हुए । भोलके वेष के धारण करने वाले जरत्कुमार ने कृष्ण के पैर में वाणसे प्रहार किया जिससे मरकर वे तोसरे नरक गये और द्वीपायन अनन्त संसार का पात्र हुआ ॥५०॥
१. प्रथमं म०
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