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३१२ . षट्प्रामृते
[५. ४५समाश्वास्य. सादरं तव स्वस्त्यस्त्वित्युवाच । तमविज्ञातपूर्वत्वात्प्राह त्वं कुतस्त्यो वने पर्यटनं कस्मादिति । पर्वतस्तु निजवृत्तान्तमादितः। प्राह । तत्श्रुत्वा महाकालश्चिन्तयामास । मम शत्रु सगरं निवंशीकर्तुं समर्थ एष स्यात् । भोः पर्वत ! तव पिता स्थंडिल:'अहं विष्णुरूपमन्युः । एतौ द्वावपि भौमोपाध्यायशिष्यौ शास्त्राभ्यासमकारिषातां । त्वत्पित मम धर्मभ्राता तमहं दृष्टुमागतः ममा गमनंत्वन्तर्गडु जातं । पुत्र पर्वत! मा त्वं भैषीः तव शत्रुविध्वंसेऽह सहायो भविष्यामि । इति क्षीरकदम्ब पुढेष्टार्थस्यानुगता अथर्वणगताः षष्ठिसहस्रप्रमिताः पृथक् ऋचो वेदरहस्यानीति स्वयमुत्पाद्य पर्वतमध्याप्य शान्तिपुष्ट्यभिचारात्मक्रियाः पूर्वोक्तमंत्रणनिशिताः पवनोपेताग्निज्वालासमा इष्टेः फलमुत्पादयिष्यन्ति, पशु हिंसनात्प्र
पर्वत भी वहीं एक पर्वत पर घूम रहा था। महाकाल असुरने उसे देखा। पर्वत ने संमुख जाकर तथा नमस्कार करके अभिवादन का उच्चारण किया। महाकाल ने उसे आश्वासन देकर कहा कि तुम्हारा कल्याण हो
और पहलेसे परिचित न होनेके कारण कहा कि तुम कहाँसे आये हो और वनमें किस लिये घूम रहे हो? पर्वतने प्रारम्भसे अपना सब वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर महाकाल ने विचार किया कि मेरे शत्रुसंगरको निर्वंश करनेके लिये यह समर्थ हो सकता है। उसने कहा कि हे पर्वत ! तुम्हारे पिता स्थण्डिल (क्षीरकदम्ब ) और मैं विष्ण रूप मन्य, ये दोनों ही भौम नामक उपाध्यायके शिष्य थे तथा उनके पास शास्त्रका अभ्यास करते थे । तुम्हारे पिता मेरे धर्म भाई थे, इसलिए मैं उन्हें देखनेके लिये आ रहा था परन्तु मेरा आना व्यर्थ हआ। बेटा पर्वत ! तुम डरो मत, तुम्हारे शत्रुके नाशमें मैं सहायक होऊंगा। इस प्रकार क्षीरकदम्ब के पुत्र ( पर्वत ) के अभिलषित अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली अथर्ववेद सम्बन्धी साठ हजार पृथक् ऋचाएँ पूर्वोक्त मन्त्रोंसे तीक्ष्ण-शक्तिशालिनी होती हैं और 'ये वेदके रहस्यको बतलाने वाली हैं,' ऐसा कह कर उस महाकाल असुरने स्वयं बनाई तथा पर्वत को पढ़ाई और कहा कि शान्तिक, पौष्टिक तथा अभिचारात्मक (बलिदानात्मक) क्रियाएँ यदि पशु-हिंसाके साथ प्रयोगमें लायी जाती हैं तो वायु से युक्त अग्नि की ज्वालाके समान यज्ञका फल उत्पन्न करती हैं । इसके बाद उसने पर्वतसे यह भी कहा कि हम साकेत-अयोध्या
१. क्षीरकदम्बस्य द्वितीय नाम ( क x टी)। २. षट्सहस्र ऋचो वर्तन्ते पूर्व । एका मेकां ऋचं प्रति शतं शतं ऋचः प्रक्षेपित
वान् तेन पष्टिसहस्रान्तिा असो वाता. (क+टो)।
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