Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते
[ ५.४५
परिम्लानमुखौ बभूवतुः । तौ तादृशी निरीक्ष्य महाकालस्य किंक रास्तापसाकारं गृहीत्वा समूचुः -- हे पर्वत हे वसो ! युवां भीति मा काष्टमित्युक्त्वा स्वयमुत्थापितं सिंहासनं दशयामासुः । तत्र स्थितो वसुरुवाच । अहं तत्ववित् कथं बिभेमि पर्वतस्य सत्यवचनं जानन्निति ब्रुवाणः कण्ठपर्यन्तं निमग्नवान् । तद् दृष्ट्वा साधवो जगदुः । अनेन मिथ्यावादेन भूपतेरियमवस्था संजाता । हे राजन् ! अद्यापि मिथ्यामागं त्यजेति साधुभिः प्रार्थितोऽपि तथापि मूर्खो यज्ञमेव सन्मार्ग कथितवान् । भूम्या कुपितया सर्वाङ्गोऽपि निगीर्णः सप्तमं नरकं जगाम । तदा कालासुरो लोकप्रत्ययनिमित्तं गगने स्थितं सगरवसुरूपद्वयं दिव्यं दर्शयामास । आवां
करो। नारद ने अहिंसा लक्षण धर्मका पक्ष स्वीकार किया है और पर्वत उसके विपरीत आक्षेप कर रहा है। अतः आप गुरुका उपदेश कहिये अर्थात् यह बताइये कि गुरु-क्षोरकदम्ब का क्या उपदेश था । इसप्रकार विश्वभू मन्त्री आदिने राजा वसु से प्रार्थना की।
गुरुपत्नी अर्थात् पर्वत की माता जिससे पहले प्रार्थना कर चुकी थी, महाकाल असुरने जिस महामोह - तो मिथ्यात्व उत्पन्न कराया था तथा जो विषय संरक्षणानन्द नामक रौद्र ध्यान में तत्पर था ऐसा राजा वसु गुरु द्वारा प्रदत्त उपदेशको जानता हुआ भी दुःषमकाल -- पंचम कालके निकटवर्ती होनेसे लगा कि जो तत्व पर्वतने कहा है, वही ठीक है । प्रत्यक्ष वस्तु में अनुपपत्ति क्या है ? पर्वत के द्वारा कहे हुए यज्ञके द्वारा सगर पत्नो सहित स्वर्गको प्राप्त हो चुका है। जलते हुए दीपकको दूसरा कौन दीपक है जो प्रकाशित कर सके ? इसलिये आप लोग पर्वत के द्वारा कहे हुए यज्ञको स्वर्गका साधन समझ, भय छोड़कर करो। इस प्रकार हिंसानन्द और मृषानन्द रौद्रध्यान के द्वारा जिसे नरकायु का बन्ध पड़ गया था तथा जो मिथ्या पाप और अपवादसे नहीं डर रहा था ऐसे वसुने कहा ।
उस समय आकाशमें ऐसा शब्द हुआ मानों ब्रह्माण्ड फट गया हो। ऐसा जान पड़ने लगा मानो आकाश ही चिल्ला चिल्ला कर कह रहा हो - अहो नारद ! अहो तापसो ! राजाके मुख से ऐसा अपूर्वं भयंकर वचन उत्पन्न हुआ है। नदियोंके जलका प्रवाह उल्टा बहने लगा, तालाब शीघ्र सूख गये, रक्तकी वर्षा निरन्तर होने लगो, सूर्यकी किरणें फीकी पड़ गईं, सब दिशाएँ मलिन हो गईं, प्राणी भयसे विह्वल होकर काँपने लगे। उसी समय पृथिवी फट गई और उस महाछिद्र में वसुका सिंहासन धँस गया । आकाशमे स्थित देव और विद्याधरोंके अधिपति यह कहने लगे - अहो महाबुद्धिमान् ! राजा वसु ! तुम इस तरह धर्मका विध्वंस करने वाले मार्गका
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