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षट्प्राभृते
[ ५.४६
वसुदेवं राजानं गत्वा सस्नेहमिदमयाचत देवकी मम गृहान्तरे प्रसूति 'कुर्यान्मतादिति । वसुदेवस्तेनोपरुद्धः संस्तथास्त्विति जगाद अवश्यंभाविकार्येषु मुनिरपि मुह्यति । अथैकदा स मुनिर्देवकीगेहं भिक्षार्थं प्रविवेश । वसुदेवो देवकी च तं प्रतिगृह्य `भोजयित्वोवाच—आवयोर्दीक्षा भविष्यतीति छद्मना जगदतुः । मुनिस्तदिङ्गितं ज्ञात्वोवाच युवयोः सप्त पुत्रा भविष्यन्ति तेषु षट् पुत्राः परस्थाने वृद्धिमित्वा मोक्षं यास्यन्ति सप्तमस्तु पुत्रो निजच्छत्रच्छायया पृथ्वीं निर्वाप्य चक्रवर्ती दीर्घकालं पालयिष्यति । देवकी ततस्त्रियमलान् लेभे । तान् ज्ञानवान् शक्रश्चरमाङ्गान् ज्ञात्वा नैगमर्ष देवं प्रोवाच एतांस्त्वं रक्ष । स च भद्रिलपुरे अलकाया वणिक्पुत्र्याः पुरो निक्षिप्य तत्पुत्रांस्तदा भूतात् गृहीत्वा मृतान् यमान् देवक्यग्रे निचिक्षेप | कंसस्तान् मृतान् यमान् दृष्ट्वा किममी मे मृताः करिष्यन्तीति
वचन झूठ होगया' यह कहने लगा फिर भी कुछ आशङ्का से युक्त हो उन्हें शिला पर पछाड़ता गया ।
पश्चात् देवकी ने सातवां पुत्र सातवें ही मास में अपने घर में ही उत्पन्न किया । वह पुत्र महाशुक्र स्वर्ग से च्युत होकर आया था तथा निनामक मुनिका जीव था । वसुदेव और बलभद्र नीति के जानकार थे, अतः उन्होंने देवकी को सब समाचार बतलाकर उससे बालक ले लिया ।
भद्र ने बालक को उठाया और पिताने छत्र लगाया तथा रात्रिमें ही उसे बाहर निकाल दिया । पुत्रके पुण्य से नगर देवता बैलका रूप रख अपने सींगों पर रखीं मणिमय दीपिकाओं से प्रकाश करता हुआ मार्ग दिखाता जा रहा था । उस बालक के परके स्पर्श से गोपुर के किवाड़ शीघ्र ही खुल गये। वहाँ बन्धन में पड़े उग्रसेन बोले कि किवाड़ोंका उद्घाटन कौन कर रहा है ? बलदेव ने कहा- जो तुम्हें बन्धन से मुक्त करेगा, अतः चुप रहो । 'ऐसा ही हो' इस प्रकार आशीर्वाद के द्वारा उसका अभिनन्दन कर उग्रसेन चुप हो गये । अब बलदेव और वसुदेव यमुना नदी के पास पहुँचे । होनहार चक्रवर्ती के प्रभावसे यमुनाने भी दो भागों में विभाजित हो मार्ग दे दिया सो ठीक ही है क्योंकि समान वर्ण वाला [ पुत्रकी कान्ति थी तथा यमुना का पानी भी काले रङ्गका था इसलिये पुत्र और
१. पूर्वदत्तवरदानात् ( क० टि० ) 1
२. म प्रती उवाच नास्ति । ३. त्रियंमान् म० ।
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