Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
4.४६]
भावप्राभृतम्
३२५
घृत्वा लोकान् प्रत्याह - पोदनापुरे पूर्वभवेऽहं मधुपिङ्गलो नाम राजा आसं । सुलसानिमित्तं मया महत्पापमुपार्जितं अहिंसालक्षणो धर्मो जिनेन्द्रः कथितः स भवद्भिः कर्तव्यो धर्मिष्ठैरिति संप्रोच्य अन्तदघी । पुनर्दयार्द्रधीः सन् सुदुश्चेष्टापापस्य प्रायश्चित्तं स्वयं चकार । किं प्रायश्चित्तं ? सम्मोहात्कृतस्य पापस्य निवृत्तिरेव प्रायश्चित्तं तामसौ चकार । अथ दिव्यबोधैर्मुनिभिरित्युक्तं विश्वभूप्रमुखा हिंसाप्रवर्तका नारका बभूवुः । तत्श्रुत्वा पर्वतोद्दिष्ट दुर्मार्गं केचित् पाप• भीरवो नाशिश्रियः । केचित्तु दीर्घंसंसारिणस्तस्मिन्नेव दुर्मार्गे स्थिता इति । इति श्रीभावप्राभृते मधुपिंगलद्रव्यलिगिनः कथा सामाप्ता' ।
अण्णं च वसिट्ठमुणी पत्तो दुक्खं नियाणदोसेण । सो णत्थि वासठाणो जत्य न दुरुदुल्लिओ जीव ॥ ४६ ॥
अन्यच्च वशिष्ठमुनिः प्राप्तः दुःखं निदानदोषेण । तन्नास्ति बासस्थानं यत्र न भ्रान्तो जीव ! ॥ ४६ ॥
पुनः
तदनन्तर महाकाल ने इष्ट कार्य सिद्ध कर अपना असली रूप धारण किया और लोगों से कहा कि मैं पूर्वं भव में पोदनपुरमें मधु-पिंगल नामका राजा था । सुलसा के निमित्त मैंने यह महापाप उपार्जित किया है । जिनेन्द्र देवने जो अहिंसा लक्षण धर्म कहा है आप अब धर्मात्माओं को उसीका पालन करना चाहिये। ऐसा कह कर वह अन्तर्हित आद्र - बुद्धि होकर उसने अत्यन्त दुष्ट चेष्टा रूप पापका स्वयं प्रायश्चित्त किया। क्या प्रायश्चित्त किया ? अज्ञान से किये हुए पापका छोड़ देना ही प्रायश्चित्त है, इसी प्रायश्चित्त को उसने किया । तदनन्तर दिव्य ज्ञान के धारक अवधिज्ञानी मुनियों ने कहा कि हिंसा धर्म की प्रवृत्ति कराने वाले विश्वभू आदि नारकी हुए हैं अर्थात् नरक में गये हैं । यह सुनकर पापसे डरने वाले कितने ही लोगों ने पर्वत द्वारा उपदिष्ट मार्ग का आश्रय नहीं लिया अर्थात् उसे छोड़ दिया और कितने ही दीर्घं संसारी जीव उसी कुमार्ग में स्थित रह आये ।
इस प्रकार मधुपिङ्गल की कथा समाप्त हुई ।
गाथार्थ — और भी, वसिष्ठ मुनि निदान के दोषसे दुःख को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है क्योंकि हे आत्मन् ! ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ यह जीव न घूमा हो ॥ ४६ ॥
१. परिसम्पूर्णा क० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org