Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभूते
[ १.४५
मिराचकार । तद् दृष्ट्वा मुग्धाः प्राणिनस्तद्वचनया मोहिताः सन्तः स्वर्गगतये स्पृहयन्तो यागमूर्ति भृशमाचकांक्षुः । सुमित्रयज्ञावसाने जात्यश्वमेकं विधिपूर्वकं हुतवान्, राजाज्ञया सुलसां च खलो वषट्चकार । प्रियकान्तावियोगदुःखदावानलज्वालाभिः प्लुष्टकायो राजा नगरं प्रविष्टः, शय्योपरि शरीरं निचिक्षेप । प्राणिहिंसमं महदिदं वृत्तं किमयं धर्मः किमधर्मः इति संशयानः स्थितः अन्यस्मिन्नहनि यतिवरनामानं मुनिमभिवन्द्य विज्ञप्तवान । भट्टारक ! मयारब्धं कर्म पुण्यं पाप वा सम्यक्कथय । यतिवरः प्राह धर्मशास्त्रबाह्यमिदं कर्म कर्तारं सप्तमं नरक प्रापयेत् । स्वामिन्नस्ति तत्राभिज्ञानं । मुनिराह - राजन् सप्तमे दिने तव मस्त
दावानल की
सगर नगर में
संशय उठा कि
गये उन पशुओं को 'यह शरीर के साथ स्वर्ग गया, स्वर्ग गया' इस प्रकार कहता हुआ विमान में बैठे आकाशमें ले जाते हुए लोगों को दिखाता था । देशके ऊपर जो अनिष्टकारी उपसर्ग आया था उसे भी उसने उसी समय दूर कर दिया। यह देख भोले प्राणी उसकी मायासे मोहित हो स्वर्ग जाने की इच्छा करते हुए यज्ञ में मरने की तीव्र आकांक्षा करने लगे । सुमित्र नामक यज्ञके अन्त में उसने एक उत्तम जातिके घोड़ेको विधिपूर्वक होम दिया। यही नहीं, उस दुष्टने राजाकी आशासे उसकी रानी सुलसा का भी होम दिया। प्रिय स्त्रीके वियोग - -जन्य दुःख रूपी ज्वालाओं से जिसका शरीर जल गया था, ऐसा राजा प्रविष्ट हुआ और शय्याके ऊपर लेट रहा। उसके मनमें यह बहुत भारी प्राणिहिंसा हुई है यह धर्म है या अधर्म ? दूसरे दिन उसने यतिवर नामक मुनिको वन्दना करके निवेदन किया कि स्वामिन् ! मेरे द्वारा प्रारम्भ किया कार्यं पुण्यरूप है या पाप रूप ? ठीक ठीक कहिये । मुनिराज बोले- यह कार्यं धर्म-शास्त्रसे बाह्य है तथा करने वालेको सातवें नरक पहुँचा सकता है । सगरने कहा - स्वामिन् ! इसका कुछ परि चायक है ? मुनिराज ने कहा- राजन् ! सातवें दिन तुम्हारे मस्तक पर वज्र गिरेगा, इस परिचायक चिह्नसे तुम सातवें नरक जाओगे । यह सुन कर राजाने भयभीत हो पर्वत से कहा । पवंतने कहा- राजन् ! यह नग्न साघु क्या जानता है ? फिर भी यदि तुम्हें शङ्का है तो इसकी भी शान्ति करते हैं, इस प्रकारके वचनोंसे उसके मनको स्थिर करके शिथिल कर दिया । पुनः उसने सुमित्र नामका ही यज्ञ प्रारम्भ किया ।
तदनन्तर सातवें दिन पापी असुर की माया से आकाश में खड़ी सुलसा कर रही थी कि मैं देव पदको प्राप्त हुई हूँ। पहले जो पशु मारे
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