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षट्प्राभृते
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दूषितः, हिसाधर्मं विनिश्चित्य नारको भावी । द्वितीयो मुनिः प्राह-मध्यस्थितो पर्वतः, द्विजपुत्रः, 'दुर्बुद्धिः क्रूरः, महाकालोपदेशादथर्वणं पापशास्त्रं पठित्वा दुर्मार्गदेशको हिसैव धर्म इति रौद्रध्यानपरायणो बहून् नरके प्रवेश्य स्वयमपि नरकं यास्यति । तृतीयो मुनिरुवाच एष पश्चात्स्थितो नारदः, द्विज, घीमान्, धर्मध्यानपरायणोऽहसालक्षणं धर्म श्रितानां व्याकुर्वाणो भावी गिरितटाख्यपुरम्य स्वामी भूत्वा दीक्षित्वा सर्वार्थसिद्धि यास्यति । तन्मुनित्रयोक्तं क्षुतधरः श्रुत्वा सांघु पठितं निमित्तं भवद्भिरिति तुष्टाव । क्षीरकदम्ब उपाध्यायः समीपतरतरुसमाश्रयस्तदाकर्ण्य तदतद्विधिचेष्टितमशुभं धिगिति भणित्वा किमत्र मया क्रियते इति विचिन्त्य तत्रस्थित एव मुनीनभिवन्द्य वैमनस्येन शिष्यैः सह नगरं प्रविवेश । तदनन्तरमेकवर्षेण 'शास्त्रे बालत्वे पूर्णे जाते विश्वावसुर्वसवे राज्यं दत्वा दीक्षां
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क्षीर-कदम्ब उपाध्याय निकटवर्ती एक वृक्षके नीचे बैठा-बैठा यह सब सुन रहा था सुनकर यह सब विधिको चेष्टा है, विधिको इस अशुभ वेष्टाको धिक्कार है' ऐसा कहकर वह विचार करने लगा कि इस विषय मैं क्या कर सकता हूँ ? तदनन्तर वहाँ बैठे-बैठे ही मुनियोंको नमस्कार कर वह बेमनसे शिष्योंके साथ नगर में प्रविष्ट हुआ ।
तदनन्तर एक वर्ष में जब वसुका शास्त्र विषयक बाल्य अवस्था पूर्ण हो गई अर्थात् उसका जब शास्त्राध्ययन समाप्त हो गया तब विश्ववसुने उसके लिये राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली । वसु निष्कण्टक राज्य करने लगा । एक दिन वह क्रीड़ा करनेके लिये वनमें गया । वहाँ कुछ पक्षी उड़
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रहे थे । वे पक्षी अचानक रुककर नीचे गिर गये, उन्हें देख वसु विचार करने लगा कि पक्षी आकाश में उड़ते-उड़ते गिर जाते हैं उसमें कुछ कारण अवश्य होगा, ऐसा विचार करके उसने उस स्थानपर अपना वाण छोड़ा । परन्तु वह वाण भो वहीं रुक गया । तदनन्तर वसुने सारथिके साथ वहीं स्वयं जाकर वहाँ का स्पर्श किया । यह आकाश स्फटिकका स्तम्भ है, यह जानकर वसु उसे ले आया तथा इसका किसीको हाल मालूम नहीं होने दिया। उसने उसके चार बड़े-बड़े पाये बनवाकर सिंहासनका निर्माण कराया। वह उस सिंहासन पर बैठा, राजा आदि उसकी सेवा करने लगे । राजा वसु सत्यके माहात्म्यसे अन्तरिक्ष सिंहासन पर बैठा है, इस प्रकार आश्चर्य करते हुए लोगोंने उसकी उन्नति की घोषणा शुरू कर दी ।
१. मन्दबुद्धिः क० । २. शास्त्रेण म० ।
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