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भावप्राभृतम्
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भावाः परिणामास्त एव बीजान्यंकुरोत्पत्तिहेतवस्तैः कुभावनाभावबीजैः । कास्ताः पावस्थपंचभावनाः ? यो वसतिष प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी श्रवणानां पावें तिष्ठति स पार्श्वस्थः । क्रोधादिकषायकलुषितात्मा व्रतगुणशीलैः परिहीनः संघस्याविनयकारी कुशील उच्यते । वैद्यकमंत्रज्योतिषोपजीवी राजादिसेवकः संसक्तः कथ्यते । जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारो ज्ञानचरणभ्रष्टः करणालसोऽवसन्न आभाष्यते । त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्दविहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्रः परिलप्यते स्वछन्द इति वा, एते पंचश्रवणा जिनधर्मबाह्या न वन्दनीयाः । तेषां कार्यवशात् किमपि न देयं जिनधर्मोपकारार्थमिति ।
प्रश्न-वे पाश्वस्थ आदि पाँच भावनाएं कौन हैं:
उत्तर-जो मुनि वसतिकाओं में नियमबद्ध निवास करता है तथा यन्त्र मन्त्र आदि उपकरणों से उपजीविका-आहारादि प्राप्त करता हुआ साधुओंके पार्श्व-समीप में स्थित रहता है, वह पार्श्वस्थ है । क्रोध आदि कषायोंसे जिसको आत्मा कलुषित है, जो व्रत गुण और शीलसे रहित है तथा मुनिसंघकी अविनय करता है-अहंकार-वश उद्दण्ड आचरण करता है, वह कुशील कहलाता है। जो वैद्यक मन्त्र और ज्योतिष द्वारा उपजीविका करता है तथा राजा आदिको सेवा करता है-अधिकतर उनके संपर्क में रहता है वह संसक्त कहलाता है। जो जिन-वचन-जन शास्त्रों से अनभिज्ञ है, चारित्रका भार छोड़ करके जो ज्ञान और चारित्रसे भ्रष्ट हो चुका है तथा क्रियाओंके करनेमें आलसी रहता है वह अवसन्न कहा जाता है और जो गुरुकुलको छोड़कर अकेला विहार करता है तथा जिनेन्द्र देवके वचनोंमें दोष लगाता है वह मगचारित्र अथवा स्वच्छन्द कहलाता है। ये पांच प्रकारके मुनि जिनधर्म से बाह्य हैं, अतः वन्दना करनेके . योग्य नहीं हैं । जिनधर्मके उपकारके लिये इन्हें कार्यवश कुछ भी नहीं देना चाहिये क्योंकि भ्रष्ट मनियोंको आहार आदि देने तथा उनकी भक्ति वन्दना आदि करनेसे जिनधर्मका अपवाद होता है । इन पाँच प्रकारके मुनियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली पार्श्वनाथ आदि पाँच भावनाएं हैं। इस जीवने अनादि कालसे अनन्तों बार इनकी भावना की है तथा उसके फलस्वरूप बहुत दुःख प्राप्त किया है ॥१४॥
१. किमपि देयं म०प०।
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