Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
२७०
षट्प्राभृते
[ ५.२५
( ताणं णत्थि पमाणं ) तेषां कलेवराणां नास्ति न विद्यते प्रमाणं गणनमनन्तत्वात् । (अणन्तमवसायरे धीर ) अनन्तभवसागरेऽन्तातीत संसारसमुद्रे हे धीर ! ध्येयं प्रति धियमरियतीति धीरस्तस्य सम्बोधनं क्रियते हे धीर ! हे योगीश्वर ! भावचारित्रं विनेति शेषः ।
विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसं किलेसाणं
आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ ॥ २५॥ विषवेदना रक्तक्षयभयशस्त्रग्रहणसंक्लेशानाम् । आहारोच्छवासानां निरोधनात् क्षीयते आयुः ॥ २५ ॥
( विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं ) विषवेदनारक्तक्षय भयशस्त्रग्रहणसंक्लेशानां । ( आहारुस्सासाणं ) आहारोच्छवासानां । ( णिरोहणा ) निरो-: धनात् । ( खिज्जए आऊ ) क्षोयते आयुः ।
हैं | गाथा में आचार्यने मुनिवर और 'धीर' दोनों पदोंका सम्बोधन में प्रयोग करते हुए कहा है कि हे धीर वीर ! मुनिश्रेष्ठ ! तूने भावचारित्र - के बिना मात्र द्रव्यलिङ्ग धारण कर अनन्त संसार सागर में जो अनेक शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं उनका प्रमाण नहीं है अर्थात् तूने अनन्त शरीर धारण कर छोड़े हैं ||२४||
आगे आयु क्षीण होनेके कारण बतलाते हैं
गाथार्थ - विषकी वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्र को चोट, संक्लेश तथा आहार और श्वासोच्छ्वास के निरोधसे आयु क्षीण हो जाती है | २५ |
विशेषार्थ - हे जीव ! मात्र द्रव्य - लिङ्गको धारण कर तूने ऐसे अनेक भव प्राप्त किये हैं जिनमें विषजनित वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्र-ग्रहण, संक्लेश तथा आहार और श्वासोच्छ्वासके रुक जानेसे असमय में ही आयु क्षीण हुई है अर्थात् अकाल-मरण हुआ है ।
[ जहाँ आयु कर्मके निषेक, अपनो निषेक-रचना के स्वाभाविक क्रमको छोड़कर एकदम खिर जाते हैं उसे अकाल -मरण कहते हैं । यह अकालमरण उपपाद जन्मवाले देव और नारकियोंके, चरमशरीरी मनुष्योंके, भोगभूमि में उत्पन्न हुए असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तिर्यञ्चों के नहीं होता है । कर्मभूमिके अवशिष्ट मनुष्य और तिर्यञ्चोंके ही होता है । आज कल कुछ लोग ऐसा कहने लगे हैं कि केवलज्ञानी के ज्ञान में जीवोंकी जितनी आयु दिखती है उतनी ही आयु पूरी कर उनका मरण होता है, अतः अकालमरण नामकी कोई चीज नहीं है, सबका काल
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org