Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्नाभृते
[५. ३०षष्ठिवारान् म्रियन्ते । चतुरिन्द्रिया जीवा अन्तर्मुहूर्तेन चत्वारिंशतं वारान् नियन्ते । ( पंचिंदिय चउवीसं ) पंचेन्द्रिया जीवा अन्तर्मुहूर्तेन चतुर्विशति वारान् म्रियन्ते । ( खुद्दभवतोमुहुत्तस्सं ) क्षुद्रभवा अन्तर्मुहूर्तस्य क्रमेण ज्ञातव्याः ।
रयणते सुअलद्धे एवं भमिओसि दोहसंसारे । इय जिणवरेहि भणियं तं रयणतं समायरह ॥३०॥
पञ्चेन्द्रिय जीव चौबीस बार मरते हैं। उक्त जीवोंके अन्तर्मुहूर्त कालमें ऊपर बताए हुए मरण होते हैं और इतने ही क्षुद्र भव होते हैं। ॥२९॥
गाथार्थ हे जीव ! रत्नत्रयके प्राप्त न होनेसे तू इस तरह दीर्घ
१-अन्तर्मुहूर्तमें किस जीवके कितने क्षुद्रभव होते हैं इसका स्पष्ट वर्णन गोम्मटसार जीवकाण्डमें इस प्रकार दिया है
तिण्णिसया छत्तीसा छावट्ठिसहस्सगाणि मरणाणि ।
अन्तोमुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दभवा ।। १२२ ॥ अर्थ-एक अन्तमुहूर्त में एक लब्ध्यपर्याप्तक जीव छयासठ हजार तीनसो छत्तीस मरण और इतने ही भवों ( जन्म ) को भी धारण कर सकता है अर्थात् एक लब्ध्यपर्याप्तक जीव यदि निरन्तर भवोंको धारण करे तो ६६३३६ जन्म और इतने ही मरणों को धारण कर सकता है, अधिक नहीं कर सकता।
सोदी सट्ठी तालं वियले चउवीस होंति पंचक्खे । ___ छावष्टिं च सहस्सा सयं च वत्तोस मेयक्खे ॥ १२३ ।।
अर्थ-विकलेन्द्रियोंमें द्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ८० भव, त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ६०, चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के ४० और पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के २४ तथा एकेन्द्रियोंके ६६१३२ भवों को धारण कर सकता है, अधिकको नहीं।
पुढविदगामणिमारुद साहारणथूल सुहुमपत्तेया। __एदेसु अपुण्णेसु य एक्केक्के वार खं छक्कं ।। १२४ ।।
अर्थ-पृथिवी कायिक, जल कायिक, अग्नि कायिक, वायु कायिक और साधारण वनस्पति कायिक इन पाँचके स्थूल तथा सूक्ष्म की अपेक्षा दो-दो भेद
और एक प्रत्येक वनस्पति कायिक इन ग्यारह प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें प्रत्येक के ६०१२ क्षुद्रभव होते हैं।
इसप्रकार एकेन्द्रिय के ६६१३२, द्वीन्द्रियके ८०, त्रीन्द्रियके ६०, चतुरिन्द्रियके ४० और पञ्चेन्द्रियके २४, कुल मिलाकर ६६३३६ होते हैं ॥१२४॥
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