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भावप्राभृतम्
देहाविचत्तसङ्गो माणकसाएण कलुसिओ धीर । अत्तावणेण जादो बाहुवली कित्तियं कालं ॥४४॥
देहादित्यक्तसङ्गः मानकषायेन कलुषितो धीर । आतापनेन जातो बाहुबलि : कियंतं कालम् ||४४॥
( देहादिचत्तसंगो ) देहः शरीरं, आदिशब्दाद्धस्त्यश्वरथपदातिसमूहः पुत्रकलत्रादिवर्गश्च लभ्यते तस्मात्यक्तसंगो निष्परिग्रहः ( माणकसाएण कलुसिओ धीर ) संज्वलन मानेनेषत्कषायेण कलुषितो मलिनितः हे धीर ! ( अत्तावणेण जादो ) आतापनेन योगेन उद्भकायोत्सर्गेण ( बाहुवली कित्तियं कालं ) श्रीबाहुवलिस्वामी कितं कालं वर्षपर्यन्तं कालं कलुषित इति सम्बन्धः । तथा चोक्तं
'चक्र' विहाय निजदक्षिणबाहु संस्थं यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुचेत् । क्लेशं किलाप स हि बाहुबली चिराय मानो मनागपि हति महतीं करोति ॥ १ ॥
गाथार्थ - अहो यतिवर शरीरादिसे स्नेह छोड़ देनेपर भी बाहुबली स्वामी मान कषायसे कलुषित रहे, अतः आतापन योगके द्वारा उन्हें कितने समय तक कलुषित रहना पड़ा || ४४ ||
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विशेषार्थ - शरीर तथा आदि शब्दसे हाथी घोड़ा रथ पदातियोंका समूह तथा पुत्र स्त्री आदिका वर्गं लिया जाता है उन सबसे स्नेहका त्याग 'कर बाहुबली भगवान् वृषभदेवके पुत्र यद्यपि भरत चक्रवर्तीके द्वन्द्वसे विरक्त हो निष्परिग्रह बन चुके थे तथापि वे संज्वलन मान-सम्बन्धी किञ्चित् कषायसे - ( मैं भरतको भूमि पर खड़ा हूँ ) इसप्रकार की अव्यक्त कषायसे कलुषित रहे, अत: कितने ही काल तक अर्थात् एक वर्ष तक उन्हें आता पन योगसे कलुषित रहना पड़ा । जैसा कि कहा गया है
१. आत्मानुशासने गुणभद्रस्य ।
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चक्र विहाय - अपनी दाहिनी भुजा पर स्थित चक्र रत्नको छोड़कर • बाहुबलीने जो दीक्षा ली थी उससे वे उसो समय मुक्त हो सकते थे परन्तु चिरकाल तक क्लेश पाते रहे । सो ठीक ही है क्योंकि थोड़ा भी मान बहुत भारी हानि करता है ॥ ४४ ॥
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