Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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२८६ षनाभृते
[५. ३४मिथ्यादृष्टिना जीवेनेत्यर्थः । कासी परंपरा ? अस्यामवसपिण्यां तृतीयकालप्रान्ते श्रीवृषभनाथेनार्थशास्त्रमुक्त, वृषभसेनगणधरेण ग्रन्थः कृतः, तत्परम्परया वीरेण भगवतार्थः प्रकाशितः गौतमेन गणिना ग्रन्थितः, तदनुक्रमेण पंचमकाले प्रमाणभूनिरम्बराचार्यरारातीयरुपदिष्टं तच्छास्त्रं प्रमाणीकर्तव्यं विसंघादिभिमिथ्यादृष्टिभिः कृतं शास्त्र न प्रमाणनीयं । अथ के ते आचार्या यैः कृतं शास्त्र प्रमाणीक्रियते इत्याह
श्रीभद्रबाहुः श्रीचन्द्रो जिनचन्द्रो महामतिः। . गृध्रपिच्छगुरुः श्रीमाल्लोहाचार्यों जितेन्द्रियः ॥१॥ एलाचार्यः पूज्यपादः सिंहनन्दी महाकविः। वीरसेनो जिनसेनो गुणनन्दी महातपाः ॥२॥ समन्तभद्रः श्रीकुभः शिवकोटिः शिवकरः । ., शिवायनो विष्णुसेनो गुणभद्रो गुणाधिकः ॥३॥ अकलको महाप्राज्ञः सोमदेवो विदांवरः । प्रभाचंद्रो नेमिचन्द्र इत्यादिमुनिसत्तमैः ॥४॥ यच्छास्त्रं रचितं नूनं तदेवाऽदेयमन्यकैः । विसंघ रचितं नैव प्रमाणं साध्वपि स्फुटं ॥५॥
उसे ग्रन्थरूपसे परिणत किया था, उसी परम्परामें भगवान् महावीरने अर्थका प्रकाश किया और गौतम गणधरने उसे ग्रन्थ रूपमें परिणत किया अर्थात् द्वादशाङ्ग की रचना की। उसी अनुक्रमसे पञ्चम कालमें प्रामाणभूत दिगम्बर आचार्योंने उपदेश दिया है सो उन्हीं आचार्योंके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र को ही प्रमाण मानना चाहिये । मूलसंघको विघटित करके विरुद्ध अथवा विविध संघोंकी स्थापना करने वाले मिथ्यादृष्टि लोगोंके द्वारा रचित शास्त्रको प्रमाण नहीं मानना चाहिये। अब वे आचार्य कौन हैं ? जिनके द्वारा रचित शास्त्र प्रमाण किये जाते हैं ? इसका उत्तर देते हुए कुछ आचार्यों नाम प्रकट किये जाते हैं।
श्रीभद्रबाहु-श्रीभद्रबाहु, श्रीचन्द्र, जिनचन्द्र, महामति, गृद्धपिच्छगुरु, इन्द्रियोंको जीतनेवाले लोहाचार्य, एलाचार्य, पूज्यपाद, महाकवि सिंहनन्दी, वीरसेन, जिनसेन, महातपस्वी गुणनन्दी, समन्तभद्र, श्रीकुम्भ, कल्याणकारी शिवकोटि, शिवायन, विष्णुसेन, अधिक गुणोंके धारक गुणभद्र, महाबुद्धिमान् अकलह, विद्वानोंमें श्रेष्ठ सोमदेव, प्रभाचन्द्र बोर
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