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पटुप्राभूते
[५.२०
रोहणपतनभंग ः ( रस विज्जजोयधारणअणयपसंगेहि ) रसस्य विषस्य या विद्या विज्ञानं तस्या योगोऽनेकौषघमेलनं तस्य धारणं सेवनमास्वादनं अनयप्रसगश्चान्यायकरणं ते रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगास्तं रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगैः । (विविहेहि) विविधैर्नानाप्रकारै: । तथा चोक्तं लक्ष्मीघरेण भगवता - 'अण्णाण दालिद्दियह अरे जिय दुहु आवग्गु । लक्कडियई विणु खोडयहं मग्गु सचिवखलु दुग्गु ॥ १ ॥ इय तिरियमणुयजम्मे सुइरं उववज्जिऊण बहुवारं । अवमिन्चुमहादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्त ॥२७॥ इति तिर्यङ्मनुष्यजन्मनि सुचिरं उपपद्य बहुवारम् । अपमृत्युमहादुःखं तीव्र प्राप्तोऽसि त्वं मित्र ॥ २७ ॥
( इय तिरियमणुयजम्मे ) इति पूर्वोक्तप्रकारेण तिर्यङ्मनुष्यजन्मनि । (सुइरं ) सुचिरं सुष्ठु दीर्घकालं । ( उववज्जिऊण वहुवारं ) उपपद्य उत्पद्य जन्म गृहीत्वा बहुवारमनेकवारं । ( अवमिच्चुमहादुक्खं ) अपमृत्युमहादु:ख ( तिव्वं पत्तोसि ) तीव्र दुःखमसहनीयमसातं प्राप्तोऽसि । ( तं मित्त ) त्वं भगवन् हे मित्र ! हे aat ! हे सुहृत् ।
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और किन्हींकी रस अर्थात् विषविद्याके योगसे अनेक औषधियों के मेलसे, किन्हीं विष निर्मित औषधियों के सेवनसे तथा किन्हीं की नाना प्रकारके अनय प्रसङ्गसे अर्थात् अन्याय करनेसे अपमृत्यु होती है । जैसा कि भगवान् लक्ष्मोधरने कहा है
अण्णाएण - हे जीव ! अन्याय के कारण दरिद्र पुरुषोंको सदा दुःख ही दुःख प्राप्त होता है, सो ठीक ही है क्योंकि खोटे पुरुषोंके तो लकड़ीके सहारेके बिना कीचड़ वाला मार्ग दुर्गम ही होता है।
गाथार्थ - हे मित्र ! इस प्रकार तिर्यञ्च और मनुष्य जन्ममें चिरकाल तक अनेक वार उत्पन्न होकर तू अपमृत्यु के तीव्र महादुःखको प्राप्त हुआ है ||२७||
विशेषार्थं - यहाँ आचार्य जीवको प्रेमपूर्ण सम्बोधन द्वारा सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे मित्र ! तूने आत्मस्वभावसे च्युत हो तियंञ्च और मनुष्य गतिमें बार-बार उत्पन्न होकर दीर्घकाल तक अपमृत्युका भारी दुःख उठाया है । अब तो आत्मस्वभावकी ओर दृष्टि दे ||२७||
१. सावयधम्म दोहा ॥ १४८ ॥
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