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षट्प्राभूते
[ ५.३२
कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा सोढुमशक्तः तन्निस्तरणस्यासव्युपाये सावध करणभीरुः विराघनमरणभोरुश्च एतस्मिन् - 'कारणे जाते कालेऽमुष्मिन् किं भवेत्कुशलमिति गणयता यद्युपसर्गत्रासितोऽहं संयमाद्भ्रश्यामि ततः संयमभ्रष्टो दर्शनादपि न २ वेदनासं क्लिष्टः सोढुं प्रव्रज्यामुत्सहे । ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिर्ममेति निश्चित
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निदान और मायाके भेदसे शल्यके तीन भेद हैं । शल्य सहित जीवका मरण सशल्यमरण कहलाता है । ]
१०. पलाय मरण - जो विनय तथा वैयावृत्य आदिमें आदर नहीं करता है, प्रशस्त क्रियाओंके करनेमें आलसी रहता है, तेरह प्रकारके - चारित्र में अपनी शक्ति छिपाता है, धर्मके चिन्तन में मानो निद्रासे झूमने लगता है और ध्यान तथा नमस्कार आदिसे दूर भागता है, उसे पलाय कहते हैं । पलाय के मरणको पलायमरण कहते हैं ।
११. वशात मरण -- इन्द्रिय, वेदना, कषाय और नो कषायसे पीडित व्यक्ति के मरणको वशात मरण कहते हैं ।
१२. विप्राणस मरण -- विप्राणसमरण और गृध्रपृष्ठ मरण नामवाले दो मरणोंका जैनागम में निषेध नहीं है और अनुज्ञा भो नहीं है । इनमें विप्राणस मरणका स्वरूप कहते हैं
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दुष्कालके पड़ने पर, जिसका पार करना कठिन है ऐसे जङ्गल में फँस जाने पर, पूर्वशत्रु का भय, दुष्टराजाका भय अथवा चोरका भय उपस्थित होनेपर, जिसका अकेले सहन करना असम्भव है, ऐसा तिर्यञ्च - कृत उपसर्ग उपस्थित होनेपर, तथा ब्रह्मचर्यं व्रतका नाश आदि चारित्र का दोष उत्पन्न होनेपर संसारसे भयभीत तथा पापसे डरनेवाला मुनि विचार करता है कि मेरे कर्मका जो उदय आया है उसे सहन करने के लिये मैं असमर्थ हूँ, तथा इस उपद्रवसे पार होनेका कुछ उपाय भी नहीं है, मैं पापकार्य के करने से डरता हूँ तथा चारित्र की विराधना कर असंयमी अवस्था में मरनेसे भी भयभीत हैं, ऐसे कारण उपस्थित होनेपर इस समय मेरी कुशल किस तरह हो सकती है इस प्रकारका विचार करता हुआ वह पुनः सोचता है कि यदि मैं उपसर्गसे भयभीत हो संयम से च्युत होता हूँ तो संयमसे भ्रष्ट कहलाऊँगा और संभव है सम्यग्दर्शनसे भी भ्रष्ट हो
१. करणे म० क० ।
२. वेदनामसंक्लिष्टः म० ।
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