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षट्प्राभूते
[ ५. २२-२३
कालमनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालसमयपर्यन्तं । ( तिहुवणमज्झे अणप्पवसो) त्रिभु
निजशुद्धबुद्ध कस्वभावचिच्च मत्कारलक्षणटंकोत्कीर्णज्ञायकंक
वनमध्येऽनात्मवशः
स्वभावात्मभावनाजिनस्वामिसम्यकत्व भावना भ्रष्ट इत्यर्थः ।
गसियाई पुग्गलाई भुवणोद रवत्तिया सव्वाइ' । पत्तोसि तो ण तित्ति पुणरूवं ताइ भुजंतो ॥२२॥ ग्रसिताः पुद्गला भुवनोदरवर्तिनः सर्वे ।
प्राप्तोसि तन्न तृप्ति पुनारूपं तान् भुंजानः ||२२||
( गसियाई पुग्गलाई ) ग्रसिताः पुद्गलाः सर्वेऽप्यणवः । ( भुवणोदरवत्तिथाई सब्वाइ' ) भुवनोदरवर्तिनः सर्वेऽपि । ( पत्तोसि तो ण तित्ति ) प्राप्तोऽसि तदपि न तृप्ति धृति । ( पुणरूत्रं ताइ भुजंतो ) पुनारूपं पुनर्नवमिति तान् पुद्गलान् भुजानः । उक्तं च पूज्यपादेन गणिना
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य ममं विज्ञस्य का स्पृहा ॥ तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिहाएं पोडिएण तुमे ।
तो विण तिन्हाछेओ जाओ चितेह भवमहणं ॥ २३॥ त्रिभुवनसलिलं सकलं पीतं तृष्णया पोडितेन त्वया । तदपि न तृष्णाछेदो जातः चिन्तयं भवमथनम् ||२३||
विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत आदि क्षेत्रों में अधिक क्या कहें तीनों लोकों में सर्वत्र चिरकाल तक - अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके कालपर्यन्त निवास किया है ॥ २१ ॥
गाथार्थ - हे जीव ! तूने संसारके मध्य वर्तमान समस्त पुद्गलों को यद्यपि ग्रसा है -- खाया है तथापि तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ । अब उन्हें नया समझ कर फिरसे खा रहा है ॥ २२ ॥
विशेषार्थ - हे प्राणिन् ! तोन लोकके अन्दर अनन्तानन्त परमाणु व्याप्त हैं तूने उन सब परमाणुओंको यद्यपि ग्रहण किया है तथापि तू संतोषको प्राप्त नहीं हुआ । पुनः उन्हीं गृहीतोज्झित पुद्गल परमाणुओं को नवीन समझ कर ग्रहण कर रहा है। पूज्यपाद आचार्य ने कहा भी है
भुक्तोज्झिता - मैंने मोहके कारण सभी पुद्गलोंको भोगकर छोड़ा है सो अब जूठे की तरह स्थित उन पुद्गलों में मुझ ज्ञानोको क्या इच्छा हो सकती है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥ २२ ॥
गाथार्थ - हे जीव ! तूने प्याससे पीड़ित होकर तीन लोकका समस्त
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