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षट्प्राभृते [५. १९-२०तुह मरणे दुक्खेणं अण्णण्णाणं अणेयजणणीणं । रुग्णाण णयणणीरं सायरसलिलादु अहिययरं ॥१९॥ तव मरणे दुःखेन अन्यासामान्यासां अनेकजननीनाम् ।
रुदितानां नयननीरं सागरसलिलात् अधिकतरम् ॥१९॥ ( तुह मरणे दुक्खेणं ) तव मरणे सति दुःखेन कृत्वा "डसा दि दे इ ए तु ते उय उब्भ तुब्भ तम्ह तुमाइ तुमो तुमे तुव तुहं तइ तुहाः” इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण तव शब्दस्य तुह इत्यादेशः । ( अण्णण्णाणं ) अन्यासामन्यासां मानुषीसिंहीव्याघ्रीमार्जारीमृगीगोगरीबडवाकरेणुप्रभृतीनां । ( अणेयजणणीणं ) अनेकजननीनां प्रत्येकमनन्तमातृणां (रुण्णाण ) रुदितानां । ( णयणणारं ) लोचनबाप्पजलं । ( सायरसलिलादु अहिंययरं ) सागरसलिलादधिकतरं प्रत्येकं समुद्रतोयदप्यधिकतरमनन्तसागरसलिलपरिमाणं भवति ।
भवसायरे अणंते छिण्णुज्झियकेसणहरणालट्ठी। पुंजेइ जइ को विजए हवदि य गिरिसमधिया रासी ॥२०॥ भवसागरे अनन्ते छिन्नोज्झितकेशनखरनालास्थीनि । पुञ्जयति यदि कश्चित् देवो भवति च गिरिसमधिका राशिः ॥२०॥
( भावसायरे अणते ) भावसागरेऽनन्ते संसारसमुद्रेऽन्तरहिते । (छिष्णुझियकेसणहरणालठ्ठी ) छिन्नानि उज्झितानि मुक्तानि अरेण नखलुना छुरिकया
गाथार्थ हे जीव ! तेरा मरण होनेपर दुःख से रोती हुई अन्य अन्य अनेक माताओं का अश्रुजल समुद्रके जलसे अत्यन्त अधिक है ॥१९॥
विशेषार्थ हे जीव ! तूने द्रव्य लिङ्गके कारण नानायोनियोंमें भ्रमण करके मानुषी, सिंहो, व्याघ्री, मार्जारी, मृगी, गौ, भैंस, घोड़ी तथा हस्तिनी आदिको माता बनाया है तथा अपना मरण होनेपर दुःखसे इन अनन्त माताओंको इतना रुलाया है कि उनके आँसू समुद्रके जलसे भी बहुत अधिक हैं अर्थात् अनन्त समुद्रोंके जलके बराबर हैं। गाथा में संस्कृत 'तव' शब्दके स्थानमें 'ङसादि दे'-आदि प्राकृत व्याकरणके सूत्रसे 'तुह' आदेश हो गया ॥१९॥ __ गाथार्थ-हे जीव ! तूने अनन्त संसार सागर में जिन केश, नख, नाभिनाल और हड्डियोंको कटने के पश्चात् छोड़ा है यदि कोई यक्ष उन्हें इकट्ठा करे तो उनकी राशि पर्वत से भी अधिक हो जाय ॥२०॥
विशेषार्थ-हे जीव ! इस अनन्त संसार सागर में मज्जनोन्मज्जन
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