Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते
[ ५. १६-१७
चविहविकहासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्यो । होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अवाराओ ॥१६॥ चतुविधविक्रथासक्तः मदमत्तः अशुभभाव प्रकटार्थः । भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तोऽसि अनेकवारान् ||१६||
( चउविहविकहासत्तो ) चतुर्विधविकथासक्तः आहारकथा - स्त्रीकथा - राजकथा - चौरकथालक्षणासु विकथासु चतुर्विधास्वासक्त: । ( मयमत्तो ) अष्टमदैर्म तो गर्वितः । ( असुहभाव पडत्थो ) अशुभभावः पापपरिणामः प्रकटः स्फुटी भूतोऽर्थः प्रयोजनं यस्य स अशुभभावप्रकटार्थः । ( होऊण कुदेवत्तं ) अशुभभावप्र कटार्थो भूत्वा कुदेवत्तं कुत्सितदेवत्वं । ( पत्तोसि ) प्राप्तोऽसि । हे जीव ! असुरादिकु देव - गतीरनेकवारान् प्राप्तोऽसि ।
असुईवाहत्थेहि य कलिमलबहुला हि गब्भव सहीहि । वसिओसि चिरं कालं अणेयजणगीण मुणिपवर ॥१७॥ अशुचिवभत्मासु कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु ।
उषितोसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर ||१७||
( असुईवीहत्येहि य) अशुचिषु अपवित्रासु बीभत्सासु च विरूपकासु ।
( कलिमलबहुलाहि ) पापबहुलासु । ( गब्भव सहीहि ) गर्भगृहेषु उदरवसतिषु ।
गाथार्थ - हे जीव ! चार विकथाओं में आसक्त होकर, मदसे मत्त होकर तथा अशुभ भावको ही प्रयोजन बनाकर तू अनेक वार कुदेव - नीच देवकी पर्याय को प्राप्त हुआ || १६ ||
विशेषार्थ - हे जीव ! तू आहार कथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोर- कथा इन चार प्रकारकी विकथाओं में आसक्त रहा है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठ पदार्थों के मदसे सदा मत्त रहा है । तथा पाप-रूपी परिणामको ही तूने अपना प्रयोजन बनाया है । इसकारण तू कुदेव-असुर आदि नीच देवों की गतिको अनेक वार प्राप्त हुआ है ।। १६ ।
गाथार्थ - हे मुनिप्रवर ! तूने अनेक माताओंकी अपवित्र, घृणित और पाप रूप मलसे परिपूर्ण गर्भ वसतिकाओं में चिरकाल तक निवास किया है ||१७||
विशेषार्थं - यहाँ आचार्यने मुनियोंको उपदेश देते हुए उन्हें 'मुनिप्रवर' इस सम्बोधनसे सम्बोधित किया है जिसका अर्थ होता है है।
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