Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-५. १३ ]
भावप्राभृतम्
न सम्यक्त्वसमं किचित्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ १॥
सम्यक्त्वभावनया एकयापि तीर्थकरनामकर्म बद्धयते पंचदशापरभावना विनापि । तस्य सम्यक्त्वस्य शुद्धता चर्मजलघृततैलहिगुवर्जनेन भवति । अन्येनायुपासकाध्ययनादिशास्त्रेणोक्तेनाचारेण विस्तरेण ज्ञातव्या । तथा चोक्तं शिवकोटिनाचार्येण -
चर्मपात्रगतं तोयं घृतं तैलं प्रवर्जयेत् । 'नवनीतंप्रसूनादिशाकं नाद्यात्कदाचन ॥१॥
कंदप्पमाइयाओ पंच वि असुहादिभावणाई य । भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिबे जाओ ॥ १३ ॥ कान्दर्पीत्यादयः पंच अपि अशुभादिभावनाश्च । भावयित्वा द्रव्यलिङ्गी प्रहीणदेवः दिवि जातः || १३||
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. ( कंदप्पमाइयाओ ) कान्दर्पी इत्येवमादिकाः । ( पंच वि असुहादिभावणाई य) पंचापि अशुभशब्दादयो भावनाश्च कान्दपप्रभृतयः पंचाशुभभावना इत्यर्थः ।
. न सम्यक्त्व - तीनों काल और तीनों लोकोंमें जीवोंका सम्यक्त्वके समान कल्याण कारक और मिथ्यात्वके समान अकल्याण-कारक दूसरा नहीं है।
शेष पन्द्रह भावनाओंके न होनेपर भी एक सम्यक्त्व भावना से ही तीर्थंकर नाम कर्मका बन्ध हो जाता है । उस सम्यक्त्वकी शुद्धता चमड़े के पात्र में रखे हुए जल, घी, तेल तथा हींगके छोड़नेसे होती है, साथ ही उपासकाध्ययन आदि शास्त्रों में कहे गये अन्य विस्तृत आचारसे भी होती है ऐसा जानना चाहिये । जैसा कि शिवकोटि आचार्यंने कहा है
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चर्मपात्र - चमड़े के पात्र में रखा हुआ पानी, घृत तथा तैलका त्याग करना चाहिये । नवनीत तथा फूल आदि का शाक कभी नहीं खाना चाहिये ॥१-१२ ॥
गाथा - दर्जी आदि पाँचों अशुभ भावनाओंका चिन्तवन कर तू द्रव्यलिङ्गी रहा और मरकर स्वर्ग में अत्यन्त हीन देव हुआ || १३ || विशेषार्थ - कान्दर्पी आदि पाँच अशुभ भावनाएँ हैं इनका चिन्तवन
१. नवनीत प्रसूनादि म० ।
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