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-५. १२] भावनामृतम्
२१७ कार उक्तसमुच्चयार्थस्तेन खलजनोक्तमिथ्याक्चनश्रवणे यदुःखं भवति तत् केनापि सोढुं न शक्यते । तदुक्तं रुद्रटेन महाकविना
शल्यमपि स्खलदन्तः सोढुं शक्येत हालाहालदिग्धं ।
धीरैर्न पुनरकारणकुपितखलालीकदुर्वचनं ॥१॥ (चत्तारि) एतानि चत्वारि । ( दुःखाई) दुःखानि । ( मणुयजम्मे ) मनुजजन्मनि मनुष्यभवे । ( पत्तोसि ) प्राप्तोऽसि हे जीव ! त्वं प्राप्तवानसि भवसि । ( अणंतयं कालं ) अनन्तकं कुत्सितमनन्तं कालं समयमिति ।
सुरनिलएसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं । संपत्तोसि महाजस दुःखं सुहभावणारहिओ ॥१२॥
सुरनिलयेषु सुराप्सरावियोगकाले च मानसं तीव्रम् ।
संप्राप्तोऽसि महायशः ! दुःखं शुभभावनारहितः ॥१२॥ ( सुरनिलएसु ) स्वर्गेषु । ( सुरच्छरविओयकाले ) देवीवियोगावसरे (य) चकारात्वं देवी जाता तदा देववियोगकाले । ( माणसं तिव्वं ) इन्द्रविभूतिं दृष्ट्वा
समुच्चयार्थक है अर्थात् कहने से जो शेष रह गया है उसका संग्रह करने
वाला है, इसलिये दुष्ट मनुष्योंके द्वारा कहे हुए मिथ्यावचन सुनने से जो । दुःख होता है वह किसीके द्वारा नहीं सहा जा सकता । जैसा कि महाकवि
रुद्रट ने कहा है... शल्यमपि धैर्यशाली मनुष्योंके द्वारा भीतर गड़ी हुई विषलिप्त . शल्य भी-वाणको अनी भी सही जा सकती है परन्तु अकारण क्रुद्ध दुष्ट
मनुष्योंका मिथ्या दुर्वचन नहीं सहा जा सकता। इन आगन्तुक आदि चारों प्रकार के दुःखों को हे जीव ! तू मनुष्य भवमें अनन्त काल तक प्राप्त हुआ है । यहाँ नाना भवोंकी अपेक्षा अनन्त काल कहा है, एक भव को अपेक्षा नहीं। अनन्तकं शब्दमें जो 'क' प्रत्यय हुआ है वह कुत्सित अर्थमें हुआ है ॥११॥ ___ गाथार्य हे महायशके धारक जीव ! तूने शुभ-भावनासे रहित होकर स्वर्गामें देव अथवा देवाङ्गनाओंके वियोगके समय अथवा अन्य कालमें तीव्र मानसिक दुःख प्राप्त किया है ॥१२॥
विशेषा-स्वर्गोमें यदि देव हुआ तो देवीके वियोगके समय और देवी हुआ तो देवके वियोगके समय हे जीव ! तूने तीव्र मानसिक दुःख
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