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षट्प्राभूते
[ ५.८
( भावरहिएण सउरिस ) भावरहितेन सत्पुरुष ! भावविवर्जितेनात्मरूपभावनारहितेन त्वया । ( अणाइकालं अनंतसंसारे ) अनादिकालमनन्तसंसारे । ( गहिउज्झियाइ' बहुसो ) गृहीतान्युज्झितानि च बहुशोऽनेकवारान् । ( बाहिरनिग्गंथख्वाइ' ) बहिर्निर्ग्रन्थरूपाणि आत्मरूपभावनारहितानीति भावार्थ: । भोसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए । पत्तोसि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीव' ॥८॥ भीषण नरकगतौ तिर्यग्गती कुदेवमनुष्यगतौ । प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावनां जीव ॥८॥
( भीषणण रयगईए) भीषणा भयानका या नरकगतिस्तस्यां भीषण नरकगत्यां । ( तिरियगईए ) तिर्यग्गत्यां ( कुदेवमणुगइए ) कुत्सितदेवकुत्सित मनुष्यगत्योर्विषये । ( पत्तोसि तिव्वदुक्खं ) प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं एकान्तेन दुःखं । ( भावहि जिणभावणा जीव ) यया विना त्व तीव्रं दुःखं प्राप्तश्चतुर्गतिषु तां भावय जिनभावनां जिनसम्यक्त्वभावनां हे जीव ! हे आत्मन ! बहिरात्मत्वं मिध्यादृष्टित्वं परित्यज्य सम्यग्दृष्टिर्भव त्वं । तेन तव चतुर्गतिदुःखं विनंक्ष्यति स्तोकेन कालेनाल्पभवान्तरेण तीर्थंकरो भूत्वा मुक्ति यास्यसि । तथा चोक्तं
विशेषार्थ - हे सत्पुरुष ! आत्मस्वरूप को भावना से रहित होकर तू ने अनादि कालसे इस अनन्त संसार में अनेकों बार बाह्य निग्रन्थ मुद्रा को धारण किया तथा छोड़ा पर उससे तेरा कुछ भी कल्याण नहीं हुआ ||७||
गाथार्थ - हे जीव ! जिस जिन भावना के बिना तू भयंकर नरक गतिमें, तिर्यञ्च गति में, कुदेवगति में और कुमानुष गति में तीव्र दु:ख को प्राप्त हुआ है, अब उस जिनभावना का चिन्तन कर ||८||
विशेषार्थ - भयानक नरक गति, तिर्यञ्च गति, भवनत्रिक आदि कुत्सित देवगति तथा कुत्सित मनुष्यगति में तू ने एकान्त रूप से तीव्र दुःख, जिस जिन - भावना - जिन सम्यक्त्व भावना ने बिना प्राप्त किये हैं, हे जीव ! हे आत्मन् ! अब तो उस जिनभावना का चिन्तन कर अर्थात् बहिरात्मा-मिथ्यादृष्टि अवस्था का परित्याग कर, सम्यग्दृष्टि हो जा । उससे तेरे चतुर्गति के दुःख थोड़े ही समय में नष्ट हो जायेंगे और तू थोड़े ही भावों के बाद तीर्थंकर होकर मोक्षको प्राप्त कर लेगा । जैसा कहा है
१. जीवा ग । जीवो घ० ।
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