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—५. ३-४ ]
भावप्राभृतम्
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मुनिस्तदा स तस्य भावः संसारकारणं भवति । यदि द्रव्यलिगं धृत्वा नीरागनिर्दोषनिर्मोहभावनां भावयति तदा केवलज्ञानादीनां गुणानुत्पादयति मुक्ति गच्छति : एतदर्थं ( जिण विति) केवलिनो जानन्ति ।
भावविसुद्धिणिमित्तं वाहिरगंथस्स कोरए चाओ । वाहिरचाओ विहलो अब्भन्तरगंथजुत्तस्स ॥३॥ भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः । बाह्यत्यागो विफलः अभ्यन्तरग्रन्थयुक्तस्य || ३ ||
( भावविसुद्धिनिमित्तं ) भावस्थात्मनो विशुद्धिनिमित्तं कारणं । ( बाहिर - गंथस कीरए चाओ ) बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः वस्त्रादेर्मोचनं विधीयते । ( बाहिरचाओ. विहलो ) बाह्यत्यागो विफलोऽन्तर्गडुर्भवति । ( अब्भंतरगंथ जुत्तस्स ) अभ्यन्तरपरिग्रहयुक्तस्य नग्नस्यापि वस्त्रादेराकांक्षायुक्तस्येति भावः । तथा चोक्तं -
बाह्यग्रन्थविहीना दरिद्रमनुजाः स्वपापतः सन्ति ।
यः पुनरन्तः संगत्यागी लोके स दुर्लभः साधुः ॥१॥ भावरहिओ न सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ । जम्मंतराई बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ॥ ४ ॥
कहना ठीक नहीं है वे जिन-लिङ्ग के द्वेषी हैं तथा कर्म रूपी शत्रुओं से युद्धके इच्छुक होते हुए भी कायर मनुष्यों को तरह स्वयं नष्ट होते हैं और अपने शिथिलाचार से दूसरों को भी नष्ट करते हैं । विवेकी मनुष्य भावलिंगके अनुसार व्यवहार धर्मका अवश्य पालन करते हैं । ]
गाथार्थ - भावोंकी विशुद्धि के लिये बाह्य परिग्रहका त्याग किया जाता है । जो अन्तरङ्ग परिग्रह से सहित है उसका बाह्य त्याग निष्फल है ॥ ३ ॥
विशेषार्थ - भाव - आत्माकी विशुद्धता के निमित्त वस्त्र और बाह्य परिग्रहका त्याग किया जाता है, पर जो बाह्य में नग्न होकर भो अन्तरङ्गपरिग्रह से युक्त है - वस्त्र आदि की आकांक्षा रखता है उसका वह बाह्यत्याग निष्फल है। कहा भी है
बाह्य - दरिद्र मनुष्य अपने पापके कारण बाह्य परिग्रह के स्थागी तो स्वयं है परजो अन्तरङ्ग का त्यागी है, ऐसा साधु लोकमें दुर्लभ है ॥ १ ॥ गाथार्थ - भावरहित साधु यद्यपि कोटी कोटी जन्मतक हाथोंको नीचे
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