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-५.२]
भावप्राभृतम्
द्रव्यलगमिदं ज्ञेयं भावलिंगस्य तदध्यात्मकृतं स्पष्टं न नेत्रविषयं
कारणं ।
यतः ॥ २॥
मुद्रा सर्वत्र मान्या स्यान्निमुद्रो नैव मान्यते । राजमुद्राधरोऽत्यन्तहीनवच्छास्त्र निर्णयः
॥३॥
( ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं ) द्रव्यलिंगे सति भावं विना परमार्थसिद्धिनं भवति तेन कारणेन द्रव्यिलंगं परमार्थसिद्धिकरं न भवति मोक्षं न प्रापयति, तेन कारणेन द्रव्यलिंगपूर्वकं भावलिंगं घर्तव्यमिति भावार्थः । ये तु गृहस्थवेषधारिणोऽपि
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का कारण जानना चाहिये क्योंकि भावलिङ्ग आत्मा के भीतर होने से स्पष्ट ही नेत्रोंका विषय नहीं है ॥ २ ॥ सब जगह मुद्रा मान्य होती है, मुद्रा - हीन मनुष्य की मान्यता नहीं होती । जिस प्रकार राजमुद्रा ( चपरास) को धारण करने वाला अत्यन्त हीन व्यक्ति भी लोक में मान्य होता है, उसी तरह द्रध्यलिङ्ग नग्नदिगम्बर मुद्राको धारण करने वाला साधारण पुरुष भी मान्य होता है, यह शास्त्रका निर्णय है || ३ ||
द्रव्य - लिंग होनेपर भी यदि भाव-लिंग नहीं है तो वह द्रव्य - लिंग पर - मार्थ की सिद्धि करने वाला नहीं है इसलिये द्रव्य-लिंग पूर्वक भाव-लिंग धारण करना चाहिये । इसके विपरीत जो गृहस्थ वेषके धारक होकर भी 'हम भावलिगी हैं क्योंकि दोक्षाके समय हमारे अन्तःकरण में मुनिव्रत धारण करने का भाव था' ऐसा कहते हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये, क्योंकि वे विशिष्ट जिन लिंगके विरोधी हैं-उससे द्वेष रखनेवाले हैं युद्ध की इच्छा करते हुए कायर की तरह स्वयं नष्ट होते हैं और दूसरों को भी नष्ट करते हैं । मुख्य व्यवहार धर्मके लोपक होनेके कारण वे विशिष्ट पुरुषों द्वारा दण्डनीय हैं। केवल ज्ञान आदि गुणोंका और नरकपात आदि दोषोंका कारण भाव ही है । यदि कोई मुनि द्रव्यलिंग-नग्नमुद्रा को धारण करके रागद्वेष मोह आदि में पड़ता है तो उसका वह भाव संसार का कारण होता है । और यदि द्रव्यलिंग धारण कर में 'नीराग हूँ' - राग रहित हूँ, निद्वेष हूँ- द्वेष रहित हूँ एवं निर्मोह हूँमोह रहित हूँ ऐसी भावना भाता है तो वह केवल ज्ञान आदि गुणोंको उत्पन्न करता है तथा मुक्तिको प्राप्त होता है । इस अर्थको केवलीजिनेन्द्र जानते हैं ॥ २॥
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[ यहाँ कुन्दकुन्द स्वामीने प्रकट किया है कि भावलिंग ही प्रमुख लिंग है । भावलिंग के बिना मात्र द्रव्य-लिंग परमार्थ नहीं है । जिसके भाव
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