Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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भाव प्राभृतम्
अथेदानीं भावप्राभृतं कुर्वन्तः श्री कुन्दकुन्दाचार्या इष्टदेवतां नमस्कुर्वन्ति - णमिऊण जिणर्वारिंदे णरसुरभर्वाणदबंदिए सिद्धे । वोच्छामि भावपाहुडमवसेसे संजदे सिरसा ॥१॥ नमस्कृत्वा जिनवरेन्द्रान् नरसुरभवनेन्द्रवन्दितान् सिद्धान् । वक्ष्यामि भावप्राभृतं - अवशेषान् संयतान शिरसा ॥१॥ ( णमिऊण जिणवरिंदे ) नमस्कृत्य, कान् ? जिनवरेन्द्रान सप्तप्रकृतिक्षयेण कृत्वैकदेशेन जिनाः सदृष्टयः श्रावकादय एकादशगुणस्थानवर्तिनः क्षीणकषायाच सयोगकेवलिपर्यन्त जिना उच्यन्ते गणधरदेवाश्च तेषां मध्ये वराः श्रेष्ठा अपरकेवलिनश्च तेषामिन्द्राः स्वामिनस्तीर्थंकरपरमदेवा जिनवरेन्द्राः कथ्यन्ते तान् नत्वा । कथंभूतान् जिनवरेन्द्रान् ( णर सुरभवणिदवंदिए ) नरेन्द्र सुरेन्द्र भावने - न्द्रवंदितान् । ( सिद्ध े ) तादृग्विशेषणविशिष्टान् सिद्धाश्च नत्वा ( वोच्छामि भावपाहुडे वक्ष्यामि ) कथयिष्यामि किं तद्भावप्राभृतं । न केवलमर्हत्सिद्धान्
अब इस समय भाव प्राभृत की रचना करते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्यं इष्ट देवताको नमस्कार करते हैं
गाथार्थ - मनुष्य, देव और भवनवासियोंके इन्द्रोंसे वन्दित तीर्थंकर परमदेव, सिद्ध परमेष्ठी तथा अन्य संयमी मुनियोंको शिरसे नमस्कार कर मैं भावप्राभृतको कहूँगा ॥१॥
विशेषार्थ - मिथ्यात्व, सम्य मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ- इन सात प्रकृतियोंके क्षय की अपेक्षा से अविरत सम्यग्दृष्टि, श्रावक पञ्चम गुणस्थानको आदि लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के जीव, क्षीणकषाय, संयोगकेवली और गणधर देव जिन कहलाते हैं । इनमें वर-श्रेष्ठ अपर केवली हैं, उनके इन्द्रस्वामी तीर्थंकर परमदेव जिनवरेन्द्र कहे जाते हैं । ये जिनवरेन्द्र नरेन्द्र सुरेन्द्र और भावनेन्द्रों के द्वारा वन्दित होते हैं । जिनके समस्त कर्मोंका क्षय हो चुका है वे सिद्ध कहलाते हैं, सिद्ध भी नरेन्द्र सुरेन्द्र और भावनेन्द्रों के द्वारा बन्दित हैं । इन अरहन्त और सिद्धके सिवाय आचार्य उपाध्याय और सर्व साधु नामक तीन प्रकारके संयमी और हैं। इस तरह इन पांचों परमेष्ठियों
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