Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
-४. ६२ ]
बोधप्राभृतम्
२४३
कथितं । ( सो तह कहियं णायं ) तत्तथा कथितं ज्ञातमवगतं । ( सीसेण य भद्दबाहुस्स ) केन ज्ञातं ? शिष्येणान्तेवासिना भद्रबाहुशिष्येण अद्वलिगुप्तिगुप्ता परनामद्वयेन विशाखाचार्य नाम्ना दशतुर्वचारिणामेकादशानामाचार्याणां मध्ये प्रथमेन ज्ञातं ।
वारसअंगवियाणं चउदसपुब्वंगविउलवित्थरणं । सुयाणिभद्दबाहू गमयगुरूभयवओ जयओ ॥६२॥ द्वादशाङ्गविज्ञान: चतुर्दशपूर्वाङ्गविपुलविस्तरणः । श्रुतज्ञानिभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु ॥ ( वारसअंगवियाणं ) द्वादशाङ्गविज्ञानयुक्तः । चउदसपुब्वंगवि उलवित्थ रणं चतुर्दशानां पूर्वाङ्गानां विपुलं पृथु विस्तरणं यस्य स चतुर्दशपूर्वाङ्गविपुलविस्तरणः । ( सुयणाणिभद्दबाहू ) पंचानां श्रुतकेवलिनां मध्येऽन्त्यो भद्रबाहुः । ( गमयगुरूभयवओ जयओं ) यादृशः सूत्रेऽर्थस्तादृशो वाक्यार्थस्तं जानन्तीति गमकास्तेषां गुरुरुपाध्यायो भगवान् इन्द्रादीनामाराध्यो जयतु सर्वोत्कर्षेण वर्ततां तस्मायस्माकं नमस्कार इत्यर्थः ।
वीर भगवान् ने ) जो अर्थ रूप शास्त्र जिसप्रकार कहा था उसे भद्रबाहु के शिष्य ने उसी प्रकार कहा तथा जाना है । यहाँ भद्रबाहुके शिष्यसे विशाखाचार्य का ग्रहण है । इन विशाखाचार्य के 'अर्हद्वलि और 'गुप्ति गुप्त' ये दो नाम और भी हैं, तथा ये दश पूर्वके धारक ग्यारह आचार्यों के मध्य प्रथम आचार्य थे || ६१ ॥
गाथार्थ - जो द्वादशाङ्ग के ज्ञानसे युक्त थे, जिन्होंने चौदह पूर्वोका अत्यन्त विस्तार किया था तथा जो गमकों व्याख्याकारोंके a भगवान श्रुतज्ञानी भद्रबाहु जयवंत हों || ६२ ||
गुरु
विशेषार्थ - इस पद्य में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने अन्तिम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु प्रति विनय प्रगट करते हुए कहा है कि जो बारह अंगों के ज्ञाता थे, चौदह पूर्वोका जिन्होंने बहुत विस्तार किया था, जो पूर्ण श्रुतज्ञानी थे - पाँच श्रुत केवलियों में अन्तिम श्रुतकेवली थे, जो गमकोंके गुरु अर्थात् उपाध्याय थे और इन्द्र आदिके द्वारा आराधना के योग्य होने से भगवान् थे, वे भद्रबाहु महाराज जयवंत रहें उनके लिये हमारा नमस्कार है । शास्त्रके शब्द और उसके अनुरूप अर्थको जो जानते हैं वे गम कहलाते हैं ॥ ६२ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org