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तत्र सुखासनस्येवं लक्षणं-
षट्काभूते
'गुल्फो तानकरांगुष्ठ रेखारोमालिनासिकाः । समदृष्टिः समाः कुर्यान्नातिस्तब्धो न वामनः २ ॥१॥
( णिराउहा ) निरायुधा दण्डाद्यायुघरहिता, अथवा निरायुह प्रासुकान् प्रदेशान् हन्ति गच्छतीति निरायुर्हा । ( संता ) शान्तरूपा अक्रूरस्वभावा । ( पर
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के ऊपर रखने पर वीरासन और उस तरह मिलाकर रखने पर जिसमें कि दोनों को गाँठें समभाग रहे सुखासन होता है ||१||
उनमें सुखासन का यह लक्षण है
गुल्फोत्तान - सुखासन से बैठा हुआ मनुष्य न ज्यादा तानकर बैठे और न ज्यादा झुककर | किन्तु समदृष्टि होता हुआ पैरों की गांठों पर रखे हुए उत्तान (चित्त) हाथ के अंगूठे की रेखाओं को नाभिके नीचे स्थित रोमावली को और नासिका को सम रखे अर्थात् हाथके अँगूठे को वक्र न करे, अधिक झुककर रोमावली को वक्र न करे और न ऊपर नीचे तथा आजू देख कर नासिका को विषम करे ॥१॥
जिन दीक्षा निरायुधा होती है - दण्ड आदि आयुधों से रहित होती है अथवा 'निरायुर्हा' संस्कृत छाया मान कर यह अर्थ भी हो सकता है कि जिनदीक्षा निरायुः-निर्जीव प्रासुक स्थानों पर ही गमन करती है। संस्कृत व्याकरण में 'हन्' धातुका हिंसा और गति इन दोनों अर्थों में प्रयोग होता है। जिन दीक्षा शान्त है - क्रूर स्वभावसे रहित है और जिनदीक्षा में किसी दूसरे के द्वारा बनाये हुए उपाश्रय में निवास किया जाता है । जिस प्रकार सर्प अपना बिल स्वयं नहीं बनाता, अपने आप बने हुए अथवा किसी के द्वारा बनाये हुए बिलमें निवास करता है उसी प्रकार जिनदीक्षा का धारक साधु अपना उपाश्रय स्वयं न बनाकर पर्वतकी
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१. यशस्तिलकचम्प्वां सोमदेवस्य ।
२. आराघनासारटीकायां भासनानां लक्षणानि यथा - "स्याज्जङ्घयो रघोभागे पादोपरि कृते सति । पर्यङ्को नाभिगोत्तान दक्षिणोत्तरपाणिकः ।। " अयमेवैकजंङ्घाया अधोभागे पादोपरि कृतेऽर्धपर्यङ्कः “वामोऽङ्घ्रि दक्षिणोरूर्ध्वं वामोरूपरि दक्षिणः । म्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम् ॥” जङ्घायामध्यभागेषु संश्लेषो यत्र जङ्घया । पद्मासनमिति प्रोक्तं तदासनविचक्षणः ॥ "
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