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२२६ षट्प्राभूते
[४.५३रहिता । ( मयरायदोसरहिया ) मदरहिता मायारहिता वा, प्रीतिलक्षगरागरहिता, अप्रीतिलक्षणद्वेष' रहिता दोषो वा व्रतादिष्वतीचारस्तेन रहिता । . (पव्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रव्रज्या दीक्षेदृशी भणिता प्रतिपादिता सिद्धार्थनन्दने
नेति शेषः।
विवरीयमूढभावा पणटुकम्मद गटुमिच्छत्ता। सम्मत्तगुणविसुद्धा पन्वज्जा एरिसा भणिया ॥५३॥ विपरीतमूढभावा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा। ।'
सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता॥ (विवरीयमूढभावा ) विपरीतमूढभावा विशेषेण परि समन्तात् इतो गतो नष्टो मूढभावो जडतास्वरूपं यस्याः सा विपरीतमूढभावा। ( पणट्टकम्मट्ठ गट्ठमिच्छत्ता') प्रणष्टानि कर्माण्यष्टौ यस्यां सा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा पंचमिथ्यात्वरहिता । उक्तं च
'एयंत बुद्धदरिसी विवरीओ बंभ तावसो विणयो। इंदो वि य संसयिदो मक्कडियो चेत्र अण्णाणी ॥१॥
व्रतों से युक्त है । जिनदीक्षा, शरीर के संस्कार से रहित है अर्थात् दन्त, नख, केश और मुख आदि अवयवों को सजावट से रहित है । तेल आदिके मर्दन से रहित होनेके कारण रुक्ष है, मद अथवा माया से रहित है, अप्रोति रूप द्वेष से रहित है अथवा व्रत आदिमें अतिचार लगने रूप दोष से रहित है। राजा सिद्धार्थ के पुत्र-भगवान् महावीर ने जिनदीक्षा का ऐसा स्वरूप कहा है ॥५२॥
गाथार्य-जिसमें मूढताएं नष्ट हो चुकती हैं, जिसमें आठ कर्म नष्ट हो जाते हैं, जिसमें मिथ्यात्व नष्ट हो चुकता है और जो सम्यक्त्वरूप गुणसे विशुद्ध है, वह जिनदीक्षा कही गई है ॥५३॥ .. - विशेषार्थ-जिनदोक्षा में मूढभाव-जड़ता विशेष रूप से नष्ट हो चुकती है, ज्ञानावरणादि आठ कर्म नष्ट हो जाते हैं और एकान्त आदि पांच प्रकारका मिथ्यात्व नष्ट हो चुकता है। पांच प्रकार के मिथ्यात्व और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों का उल्लेख करते हुए कहा गया है
एयंत-एकान्त मिथ्यात्व में बौद्ध, विपरीत मिथ्यात्व में ब्रह्मवादी,
१. दोष म। २. जीवकाण्ड मेमिचन्द्रस्य ।
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