Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्नाभूते
_ [४.५७प्रदेशे वने हि स्फुटं नित्यं तिष्ठति । (सिल कट्टे भूमितले ) शिलायां दृषदि, काळे दारुफलके, भूमितले भूमौ 'तृणायां वा । ( सम्बे आल्हइ सव्वत्य ) एतानि सर्वाणि, आरोहति उपविशति शेते च सर्वत्र वने ग्रामनगरादौ वा ॥ ५६ ॥
पसुमहिलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ। समायमाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥५७ ॥
पशुमहिलाषण्ठसंग कुशीलसंगं न करोति विकथाः।
स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ||५७॥ (पसुमहिलसंढसंगं ) यत्र पशवो भवन्ति तत्र न 'स्थीयते, यत्र महिला . भवन्ति, यत्र पंढा नपुंसकानि भवन्ति तत्र न स्थीयते । (कुसोलसंगं ण कुमार विकहानो) कुशीलस्य कुत्सिताचारस्य साधुलोकशिक्षापराङ्मुखस्य संगं न करोति-तत्संगतो दुर्ध्यानमुत्पद्यते, न करोति विकथाश्च राजकथास्त्रीकथाभोजनकथाचोरकथाश्चेति । (सज्झायमाणजुत्ता ) स्वाध्यायेन वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशलक्षणेन पंचविधेन युक्ता प्रव्रज्या भवति, ध्यानेन घHध्यानशुक्लध्यानयेन युक्ता आर्तरौद्रदुर्ध्यानद्वयरहिता। (पब्वज्जा एरिसा भणिया) प्रव्रज्या
सव्वत्थ ( सर्वत्र ) शब्दसे सूचित होता है कि मुनियोंका निवास वन अथवा ग्राम नगर आदिमें भी होता है । ५६ ॥
गाथार्य-जो पशुओं, महिलाओं, नपुंसकों और कुशील मनुष्योंका संग नहीं करती है, विकथाएं नहीं करती है तथा स्वाध्याय और ध्यानमें युक्त रहती है वह जिन दीक्षा कही गई है ।। ५७ ॥
विशेषा-जिसमें, जहां पशु होते हैं वहां नहीं बैठा जाता है, जहाँ स्त्रियां तथा नपुंसक रहते हैं वहाँ भी नहीं बैठा जाता है, खोटे आचारके धारक अथवा मुनिजनोंकी शिक्षासे पराङ्मुख मनुष्यकी संगति नहीं की जाती है क्योंकि उसकी संगति में खोटा ध्यान उत्पन्न होता है। जिसमें राजकथा, स्त्री कथा, भोजन कथा और चोर कथा ये विकथाएँ नहीं की जाती हैं और जो वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश इन पांच प्रकारके स्वाध्याय से युक्त रहती हैं तथा धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान इन दो ध्यानोंसे सहित एवं आतं और रौद्र इन दो खोटे १. तृणायां म०। २. सत्संगते म०।
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