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षट्प्राभूते
[ ४.५९०
'नवमग्र वैयकपदं लब्ध्वापि मिथ्यादृष्टयस्तपस्विनः पुनः संसारे पतन्तीति ज्ञात्वा पुनः पुनः भणामि सम्यक्त्ववता मुनिना भवितव्यं । उक्तं चानेनैव भगवता कुन्दकुन्दाचार्येण
सम्मं चेव य भावे मिच्छाभावे तहेव बोद्धव्या ।
चऊण मिच्छभावे सम्मम्मि उवट्ठिदे वंदे ॥ १ ॥
( णिग्गंथे ) निग्रन्थे । ( जिणमग्गे) जैनमार्गे नग्ने जिनमार्गे, वस्त्रसहितस्तु मोक्षं प्राप्नोतीति मिथ्यादृष्टिमार्ग: । ( संखेवेण ) संक्षेपेण समासेन । ( जहाबाद यथा मया कथित प्रव्रज्यालक्षणं स सर्वोऽपि संक्षेप इति ज्ञातव्यमिति भावः । विस्तरस्तु गौतमस्वामिसूत्रे बोद्धव्यः ।
पव्वज्जा -- प्रव्रज्यास्वरूपं निरूपितम् ।
प्रव्रज्या कोऽर्थः ? परिव्राज्यं तस्य सूत्रपदानि सप्तविंशतिजिनसेनाचार्यै - रुक्तानि । तथा हि
होती है । मिथ्यात्वसे दूषित मुनि भले ही नग्न रहता हो उसकी दीक्षा' दीक्षा नहीं होती क्योंकि वह संसारके विच्छेद से रहित है । यद्यपि मिथ्यादृष्टि मुनि उत्कृष्ट रूपसे नवम ग्रैवेयकके पदको भी प्राप्त करलेते हैं तो भी पुनः संसार में ही पड़ते हैं ऐसा जानकर में बार-बार कहता हूँ कि मुनिको सम्यग्दृष्टि होना चाहिये। जैसा कि इन्हीं भगवान् कुन्दकुन्दा चार्य ने कहा है
सम्मं - जिस प्रकार सम्यक्त्व रूप भाव हैं उसी प्रकार मिथ्यात्व रूप भी भाव होते हैं । उनमें से मिथ्यात्व रूप भावोंको छोड़कर जो सम्यक्त्व भाव को प्राप्त हुए हैं, मैं उन्हें वन्दना करता हूँ ।
जिनमार्ग परिग्रह से रहित है-नग्न रूप है। 'वस्त्र सहित मनुष्य मोक्षको प्राप्त होता है' यह मिथ्यादृष्टियों का मार्ग है। इस जैनमार्ग में जैसा कुछ प्रव्रज्या का लक्षण मैंने कहा है वह संक्षेप से ही कहा है, ऐसा जानना चाहिये । इसका विस्तार श्री गौतम स्वामीके परमागम में जानना चाहिये ।
इस प्रकार प्रव्रज्या के स्वरूपका निरूपण किया ।
प्रश्न – प्रव्रज्या इसका क्या अर्थ है ?
उत्तर - प्रव्रज्या का अर्थ पारिब्रज्य है। उसके सत्ताईस सूत्र श्री जिनसेनाचार्यंने कहे हैं । जो इस प्रकार हैं
१. नववैवेयक घ० ।
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