Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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२१८
षट्प्राभूते
[४.
अथवा
आशा दासीकृता येन तेन दासीकृतं जगत् ।
आशाया यो भवेद्दासः स दासः सर्वदेहिनाम् । निरश्वा अश्वरहिता तदुपलक्षणं गजवृषादीनाम् । (अराय) रागरहिता, अथवा प्रव्रज्यायां राजभिः सह स्नेहादिकं न कर्तव्यम् । तदुपलक्षणं मन्यादीनां प्रत्यक्षनरकपातवद्व्याख्यातत्वात् । केचिच्च जिनधर्मप्रभावनाथं मुनीनां सुस्थित्यथं च तन्निषेधं न कुर्वन्ति, म्लेच्छादि पीडानिराकरणहेतुत्वात् । (गिद्दोसा) अप्रीति
प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् सबकी मनोऽभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकती, इसलिये हे संसारी प्राणियों ! तुम्हारी विषयोंकी इच्छा करना व्यर्थ है।
और भी कहा हैमाशा-जिसने आशाको दास बना लिया उसने संसारको दास बना लिया और जो आशाका दास है, वह सब प्राणियोंका दास है।
_ 'निर्मानाश्वा' छायाके पक्षमें अर्थ इस प्रकार है कि जो निर्माना-आठ मदसे रहित हो तथा निरश्वा-अश्व आदिसे रहित हो । यहाँ अश्व शब्द हाथी तथा बैल आदिका उपलक्षण है। दिगम्बर साधुदीक्षा इन घोड़ा हाथी आदि वाहनोंके परिकरसे रहित होती है। ___ 'अराय' इस प्राकृत शब्दकी संस्कृत छाया अरागा और अराजा होती है । 'अरागा' का अर्थ है जो रागसे रहित हो और 'अराजा' का अर्थ है जो राजासे रहित हो। साधुदीक्षामें राजाओंके साथ स्नेह नहीं करना चाहिये । यहाँ राजा शब्द उपलक्षण है इसलिये मन्त्री आदिका भी ग्रहण समझना चाहिये। साधुओंके लिये राजा तथा मन्त्री आदिका सम्पर्क प्रत्यक्ष नरकपातके समान बतलाया गया है। कोई लोग जिनधर्मकी प्रभावनाके लिये तथा मुनियोंकी अच्छी स्थिति बनी रहे इस उद्देश्यसे इसका निषेध नहीं करते हैं। क्योंकि म्लेच्छ आदिके द्वारा मुनियोंको पीड़ा पहुंचाई जानेपर उसके निराकरण करनेके लिये राजा तथा मन्त्री आदिका सम्पर्क आवश्यक होता है। - 'णिदोषा' प्राकृत शब्दकी संस्कृत छाया निर्वृषा और निर्दोषा होती है जिनका अर्थ इस प्रकार है-जो निषा-अप्रीति रूप द्वेषसे रहित हो अथवा निर्दोषा-वात पित्त कफ आदि दोषोंसे रहित हो। .
'णिम्मम' प्राकृत शब्दकी छाया निर्ममा है जिसकी व्याख्या इस प्रकार है 'मम' यह ममता वाची अव्यय शब्द है (निर्गतं मम यस्या सा निर्ममा)
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