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षट्प्राभूते
[४. २२णाणं पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो। णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ॥२२॥
ज्ञानं पुरुषस्य भवति लभते सुपुरुषोऽपि विनयसंयुक्तः । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं लक्षयन् मोक्षमार्गस्य ॥२२॥ .
(गाणं पुरिसस्स हवदि ) ज्ञानं श्रुतज्ञानं पुरुषस्यासन्नभव्यजीवस्य भवति संतिष्ठते । (लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो) लभते प्राप्नोति ज्ञानं सुपुरुषोऽ-. त्यासन्नभव्यजीवः । अपि शब्दाद् ब्राह्मी-सुन्दरी राजमति' चन्दनादिवत् एकादशाङ्गानि लभन्ते, मृगलोचना अपि स्त्रीलिङ्ग छित्त्वा स्वर्गसुखं भुक्त्वा राजकुलादिषूत्पध मोक्षं तृतीयेऽपि भवे लभन्ते । पुरुषास्तु । सकलं श्रुतं लब्ध्वा तद्भवेऽपि मोक्षं यान्ति । ईदृशं ज्ञानं कः प्राप्नोति ? विणय-संजुतो-विनयसंयुक्तो गुरुचरणरेणुः रञ्जितभालस्थल इति भावार्थः ( णाणेण लहदि लक्खं ) ज्ञानेन श्रुतज्ञानेन लभते लक्ष्यं निजात्मस्वरूपं । ( लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ) लक्षयन् ध्यायन् लक्ष्यं लभते, कस्य लक्ष्यं ? मोक्षमार्गस्य रत्नत्रयस्य ॥ २२ ॥
गाथार्थ-ज्ञान पुरुष के होता है, अर्थात् विनय से संयुक्त सत्पुरुष ही ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञानके द्वारा चिन्तन करता हुआ वहो सत्पुरुष मोक्षमार्गके लक्ष्य निजात्मस्वरूप को प्राप्त होता है ॥२२॥
विशेषार्थ-यहां ज्ञान से श्रुतज्ञान विवक्षित है वह श्रुतज्ञान निकटभव्य जीवके होता है तथा विनय से संयुक्त निकट-भव्य जीव ही उस श्रुतज्ञानको प्राप्त होता है । 'सुपुरुषोऽपि' के साथ जो अपि शब्द दिया है उससे यह सूचित होता है कि ब्राह्मी, सुन्दरी राजिमती तथा चन्दना आदिके समान स्त्रियाँ भी ग्यारह अङ्ग तक श्रुतज्ञान प्राप्त करती हैं और वे भी स्त्रीलिङ्ग छेदकर स्वर्ग सुखका उपभोग कर राजकुल आदि में उत्पन्न हो तृतीयभव में मोक्ष को प्राप्त होती हैं। परन्तु पुरुष सम्पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त कर उसी भव में मोक्ष जा सकते हैं।
प्रश्न-ऐसे ज्ञानको कोन पुरुष प्राप्त होता है ? ।
उत्तर-विनय से सहित अर्थात् गुरुओं की चरण-रज से जिसका मस्तक रंगा हुआ है ऐसा सत्पुरुष ही प्राप्त होता है। वह विनयी मनुष्य, श्रुतज्ञान के द्वारा रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का चिन्तन करता हुआ लक्ष्यनिजात्मस्वरूपको प्राप्त होता है।
१. राजिमति म० ० ०।
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